जिद, महत्वकांक्षा या कुछ और... लालू यादव परिवार के बीच छिड़े घमासान की क्या है पूरी कहानी, पढ़ें 

तेज प्रताप यादव, लालू-राबड़ी के बड़े बेटे, शुरुआत में परिवार-पार्टी की पसंदीदा छवि वाले थे. लेकिन समय के साथ उनका कमज़ोर प्रदर्शन और विवादित व्यवहार आसपास चर्चा का विषय बनता रहा .जब उन्हें पार्टी से निकाला गया तो उन्होंने ख़ुद लड़ने का फैसला किया.

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लालू यादव के परिवार में मौजूदा कलह की क्या है पुरानी कहानी
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  • लालू परिवार की राजनीतिक कलह 1990 के दशक से शुरू हुई, जब लालू यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे
  • साधु यादव और सुभाष यादव के साथ सत्ता संघर्ष ने आरजेडी के अंदर परिवार के बीच दूरी बढ़ाई थी
  • आरजेडी में तीन ध्रुव बन गए हैं, जिससे पार्टी की एकता टूट गई और संगठन कमजोर होने लगा है
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पटना:

बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का परिवार सिर्फ एक राजनीतिक घर नहीं, बल्कि एक संस्था रहा है.कभी यह कहा जाता था कि राजनीति में जो लालू के साथ है,वही सत्ता में है.लेकिन वक्त के साथ यह परिवार खुद राजनीति का अखाड़ा बनता दिख रहा है. जहां रिश्तों की डोर ढीली पड़ी,वफादारियां बदलीं और परिवार के झगड़े ने पूरी पार्टी यानी राष्ट्रीय जनता दल को कमजोर कर दिया. लालू परिवार के भीतर कलह का इतिहास नया नहीं है. यह कहानी 1990 के दशक से शुरू होती है, जब लालू यादव पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने और उनके साथ उनके साले साधु यादव और सुभाष यादव जैसे रिश्तेदारों की एंट्री राजनीति में हुई.

लालू यादव की पत्नी राबड़ी देवी जब 1997 में मुख्यमंत्री बनीं, तो कहा गया कि परिवार में सत्ता “इन-हाउस” हो गई. इसी दौर में साधु यादव (राबड़ी देवी के भाई) राजनीति में सक्रिय हुए. साधु यादव आरजेडी के ज़रिए सांसद बने, लेकिन धीरे-धीरे उनके और लालू-राबड़ी के बीच दूरी बढ़ती गई. कारण था अत्यधिक हस्तक्षेप और परिवार में बढ़ती शक्ति की राजनीति.
साधु यादव को सत्ता में हिस्सेदारी कम मिली, और उनका रुझान तेजस्वी-तेज प्रताप जैसे अगली पीढ़ी के नेताओं से नहीं जंचा. 2005 में जब बिहार की सत्ता आरजेडी के हाथों से फिसली, तो साधु यादव ने खुलकर लालू परिवार की आलोचना शुरू कर दी. उन्होंने कहा कि लालू परिवार ने पार्टी को निजी दुकान बना दिया है. 2009 में उन्होंने आरजेडी छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया.

उनका यह कदम उस दौर का पहला बड़ा पारिवारिक विद्रोह माना गया. राबड़ी देवी ने भी उन्हें “परिवार विरोधी” करार दिया और कहा कि जो परिवार छोड़ता है, वो जनता का साथ नहीं निभा सकता. लालू के एक और साले सुभाष यादव भी राजनीति में सक्रिय रहे. वे संगठन में बेहद प्रभावशाली माने जाते थे. उनका विवाद लालू के साथ इसलिए हुआ क्योंकि वे खुद को पार्टी में सत्ता के असली उत्तराधिकारी मानने लगे थे. सुभाष यादव ने कई बार संकेत दिए कि उन्हें लालू और राबड़ी के निर्णयों से असहमति है. लालू को यह नागवार गुज़रा और धीरे-धीरे दोनों के रिश्ते ठंडे पड़ गए.

सुभाष यादव ने बाद में राजनीति से दूरी बना ली, लेकिन यह पहला मौका था जब परिवार के ससुराल पक्ष और मुख्य परिवार में खुला टकराव दिखाई दिया. लालू यादव की जेल यात्रा के बाद पार्टी की कमान परिवार के अगले पीढ़ी के हाथों में आई. यह वह दौर था जब तेजस्वी यादव को राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित किया गया. लेकिन तेज प्रताप यादव, जो बड़े बेटे थे, खुद को पीछे छूटता महसूस करने लगे.

तेज प्रताप का कहना था कि पार्टी में उनकी राय नहीं सुनी जाती. उन्होंने कई बार सार्वजनिक मंचों से बयान दिए की मेरे पिता लालू प्रसाद यादव हैं, लेकिन अब मुझे पार्टी में अनसुना किया जा रहा है . राबड़ी देवी और मीसा भारती ने परिवार के भीतर शांति बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन यह असंतोष समय के साथ खुला टकराव बन गया.

यही वह दौर था जब संजय यादव (तेजस्वी के करीबी सलाहकार) और तेज प्रताप के बीच संबंध बेहद खराब हुए.तेज प्रताप ने संजय को परिवार तोड़ने वाला बताया और कहा कि वो तेजस्वी को मेरे खिलाफ भड़का रहा है. यह विवाद पहली बार परिवार के भीतर सत्ता बनाम सलाहकार की लड़ाई में बदल गया.

2025 का चुनाव आरजेडी के लिए झटका लेकर आया. पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा. इस हार के बाद परिवार में जो असंतोष था, वह अब फूट पड़ा. पहले तेज प्रताप यादव को पार्टी और परिवार, दोनों से 6 साल के लिए निष्कासित कर दिया गया. इसका कारण था उनकी एक विवादास्पद पोस्ट और लगातार पार्टी के खिलाफ बयान. लालू यादव ने खुद कहा कि पार्टी अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करेगी.  

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तेज प्रताप यादव, लालू-राबड़ी के बड़े बेटे, शुरुआत में परिवार-पार्टी की पसंदीदा छवि वाले थे. लेकिन समय के साथ उनका कमज़ोर प्रदर्शन और विवादित व्यवहार आसपास चर्चा का विषय बनता रहा .जब उन्हें पार्टी से निकाला गया तो उन्होंने ख़ुद लड़ने का फैसला किया. उन्होंने अपनी नई पार्टी जनशक्ति जनता दल (JJD) बनाई और महुआ से चुनाव लड़ा. हालाकि वो चुनाव हार गए लेकिन इस चुनाव में दोनों भाईवो ने एक दूसरे के ख़िलाफ़ जम के प्रचार भी किया. तेज प्रताप के बाद अब बारी आई उनकी बहन रोहिणी आचार्य की.

उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा  कि अब मेरा इस परिवार से कोई नाता नहीं रहा. मुझे गालियां दी गईं, अपमानित किया गया.” उन्होंने संजय यादव और एक अन्य सलाहकार रमीज़ नेमत खान पर आरोप लगाया कि दोनों ने परिवार में झगड़ा करवाया और उन्हें अलग-थलग किया. रोहिणी वही बेटी हैं जिन्होंने 2023 में अपने पिता लालू को किडनी दान दी थी. इसलिए जब उन्होंने कहा कि “मैं राजनीति और परिवार, दोनों छोड़ रही हूं”, तो पूरे बिहार में इस बयान ने भावनात्मक तूफान खड़ा कर दिया.

उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने पिता को किडनी दान दी थी, पर उसी को अब “गंदा” कहा गया. इस तरह यह विवाद सिर्फ राजनीतिक नहीं रह गया बल्कि सामाजिक और पारिवारिक सम्मान का मसला भी बन गया. उनके आरोपों में संजय यादव व रमीज़ ने प्रमुख भूमिका निभाई है, रोहिणी के अनुसार उन्हें झाड़-फटकार और अपमान का सामना करना पड़ा. संजय यादव का नाम इस विवाद में बार-बार आ रहा है. वे आरजेडी के युवा रणनीतिकार माने जाते हैं, और पार्टी उनके सुझावों को काफी महत्व देती रही है.संजय हरियाणा के नंगल सिरोही के रहने वाले है .

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उन्होंने एमबीए किया और  राजनीतिक डेटा-एनालिटिक्स में अनुभव है उनका . 2012 में वो आरजेडी में शामिल बतौर चुनाव सलाहकार के भूमिका में और  2024 में वो राज्यसभा सांसद बन गए .वो तेजस्वी यादव के सबसे करीबी सलाहकार बन गए और पार्टी में उनकी बढ़ती भागीदारी ने परिवार के भीतर सवाल खड़े कर दिए. रमीज़ ने भी इस नेटवर्क में नाम बनाया है.

इन घटनाओं के बाद आरजेडी की राजनीतिक एकता टूटने लगी. पार्टी के अंदर अब तीन ध्रुव बन चुके हैं .पहला तेजस्वी यादव और उनका रणनीतिक दल जैसे संजय यादव, रमीज़ आदि. दूसरा तेज प्रताप गुट, जो खुद को मूल लालू विचारधारा का वारिस मानता है और अब तीसरा धरा रोहिणी समर्थक गुट, जो सोशल मीडिया पर सक्रिय है और तेजस्वी नेतृत्व की आलोचना कर रहा है.

राजद के कई पुराने नेताओं ने इस कलह से दूरी बना ली.उनका कहना है कि पार्टी में अब विचारधारा नहीं,परिवारवाद की जंग चल रही है.कुछ जिलों में कार्यकर्ता खुले तौर पर कहने लगे हैं कि अब यह पार्टी नहीं,घर का ड्रामा बन चुकी है.अगर इतिहास पर नज़र डालें, तो लालू परिवार के अंदर झगड़ों के पीछे चार प्रमुख कारण हमेशा रहे . पहला सत्ता का बंटवारा, यानी की  कौन मंत्री बने, कौन मुख्यमंत्री बने, किसे टिकट मिले इत्यादि इत्यादि.

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दूसरा रहा सलाहकारों की भूमिका, यानी बाहरी सलाहकारों जैसे संजय यादव की बढ़ती ताकत से परिवार के सदस्य असुरक्षित महसूस करने लगे .तीसरा बड़ा कारण जो दिखता वह है अहंकार और पहचान की लड़ाई. लालू परिवार का  हर सदस्य चाहता है कि वह लालू यादव की असली विरासत  का उत्तराधिकारी कहलाए. और चौथा  है पारिवारिक संवाद की कमी, यानी की परिवार के सदस्य अब सार्वजनिक पोस्टों और मीडिया बयानों के ज़रिए एक दूसरे से बात कर रहे है .

कभी यह परिवार एकता और संघर्ष का प्रतीक था .राबड़ी देवी मुख्यमंत्री थीं, लालू जेल से पार्टी चला रहे थे, लेकिन अब वही परिवार मतभेद और  आरोप प्रत्यारोप का प्रतीक बन गया है. साधु यादव से लेकर तेज प्रताप तक, हर पीढ़ी में यह कलह दोहराई गई है.इसका सीधा असर आरजेडी के भविष्य पर पड़ेगा.पार्टी का संगठन कमजोर होगा, मतदाता भ्रमित होंगे, और विरोधियों को राजनीतिक फायदा मिलेगा.अब लालू और राबड़ी को इस मसले में कूदना होगा. उन्हें किसी भी सूरत में इस मामले को शांत कराना होगा ताकि, पार्टी पे, कार्यकर्तवों पे इसका असर ना पड़े.  उन्हें अपनी पारिवारिक एकता  और राजनीतिक पहचान फिर से स्थापित करनी होगी.

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