EBC/OBC वोटर्स ने पिछले चुनाव में किसे दिया था वोट, किसका कटा था पत्ता 

पटना, सारण, मुजफ्फरपुर, गोपालगंज, सहरसा, नालंदा, बख्तियारपुर, मुंगेर, लखीसराय, बक्‍सर, समस्‍तीपुर, खगड़ि‍या जैसे क्षेत्रों में आने वाली विधानसभा सीटों पर वोट डाले गए. ये वो सीटें हैं जहां पर EBC/OBC की आबादी का अहम रोल है.

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  • बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण में 121 सीटों पर वोटिंग हुई, जहां EBC और OBC मतदाता निर्णायक भूमिका निभाएंगे.
  • 2020 के चुनाव में EBC/OBC वर्ग के 58 प्रतिशत मतदाताओं ने NDA का समर्थन किया था, जिससे 125 सीटें मिलीं.
  • 2023 की जाति जनगणना के अनुसार बिहार में EBC/OBC की आबादी 36.01 प्रतिशत है, जो अन्य प्रमुख जातियों से अधिक है.
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पटना:

बिहार विधानसभा चुनाव का पहला चरण गुरुवार यानी 6 नवंबर को पूरा हो गया है. पहले चरण में कुल 121 सीटों पर वोट डाले गए हैं. इन 121 सीटों में कुछ सीटों पर ओबीसी या ईबीसी मतदाता का रोल सबसे अहम होने वाला है. 14 नवंबर को आने वाले नतीजों में ये वो मतदाता होने वाले हैं जिन्हें अगर 'किंगमेकर' कहा जाए तो गलत नहीं होगा. शायद इसी बात को ध्‍यान में रखकर ही एनडीए और महागठबंधन ने उम्मीदवारों को उतारा है. एक नजर डालिए 121 सीटों पर किन समीकरणों को ध्‍यान में रखकर टिकट दिया गया है. 

आज बड़ी सीटों पर थी वोटिंग 

पटना, सारण, मुजफ्फरपुर, गोपालगंज, सहरसा, नालंदा, बख्तियारपुर, मुंगेर, लखीसराय, बक्‍सर, समस्‍तीपुर, खगड़ि‍या जैसे क्षेत्रों में आने वाली विधानसभा सीटों पर वोट डाले गए. ये वो सीटें हैं जहां पर EBC/OBC की आबादी का अहम रोल है. द इंडिया फोरम की रिपोर्ट के अनुसार 2015 में हुए चुनाव में जब नीतीश कुमार ने राष्‍ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ हाथ मिलाया और चुनाव लड़ा तो उस समय 178 सीटें मिलीं. लेकिन 2017 में उनका इस गठबंधन से बाहर जाना इन मतदाताओं को अखर गया. 

2020 में जब चुनाव हुए तो 58 फीसदी ईबीसी ने एनडीए को सपोर्ट किया और 125 सीटें उनके खाते में आईं जबकि महागठबंधन के हिस्‍से 110 सीटें आईं. मतदाता, खासतौर पर महिला मतदातर नीतीश कुमार की निषेध नीति और कैश ट्रांसफर स्‍कीम से खासे प्रभावित नजर आए. 2020 में EBC/OBC की 63 फीसदी महिलाओं ने एनडीए को समर्थन दिया तो वहीं 59 फीसदी पुरुष इसके समर्थन में नजर आए. 

2020 में कैसे पड़ा था असर 

2023 की जाति जनगणना के अनुसार, राज्य की आबादी में EBC/OBC की हिस्सेदारी 36.01फीसदी है, जो यादवों (14.26 प्रतिशत), मुसलमानों (17.7 प्रतिशत) और उच्च जातियों (15.52 फीसदी ) से कहीं ज्‍यादा है. बाढ़ग्रस्त कोसी क्षेत्र में निषादों से लेकर शहरी पटना में कुम्हारों तक, 130 उप-जातियों के साथ, वे मिथिला, मगध और सीमांचल जैसे क्षेत्रों की 120 से ज्‍यादा सीटों पर प्रभाव रखते हैं. साल 2020 में, अति पिछड़ी जातियों के वोटों में सिर्फ 1 फीसदी का बदलाव 10 से 15 सीटों का रुख मोड़ सकता था, जो सरकार की किस्मत बदलने के लिए काफ़ी था. 

साल 2020 के लोकनीति-सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) सर्वे से मिली जानकारी उनके मतदान पैटर्न के बारे में बताती है. 58 फीसदी वोटर्स ने तब एनडीए का समर्थन किया, वहीं सिर्फ 18 फीसदी ने महागठबंधन का समर्थन किया. वहीं 4 फीसदी चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) की ओर रुख किया. दिलचस्प बात यह है कि महिलाओं ने 1,000 रुपये मासिक सहायता जैसी पहलों के कारण अधिक निष्ठा दिखाई. 

किसने किसको दिया टिकट 

अब अगर बात इन चुनावों की करें तो एनडीए और महागठबंधन (एमजीबी) दोनों ने ही EBC/OBC उम्‍मीदवारों का खास ध्‍यान रखा है. महागठबंधन ने इस बार चुनावी नारा दिया, 'जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी' (जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व) और एनडीए का अपना नारा 'सबका साथ, सबका विश्वास' टिकट बंटवारे की नीति से गायब रहे. इसके बजाय, दोनों गठबंधन अपने पारंपरिक समर्थन आधारों पर लौट आए हैं और विस्तार के बजाय मजबूती पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. 

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बीजेपी ने टिकट बंटवारे में इस बार अपर क्‍लास को जोर दिया. पार्टी ने राजपूतों को 21 प्रतिशत और भूमिहारों को 16 प्रतिशत टिकट मिले हैं—जो उनकी अनुमानित 3 प्रतिशत जनसंख्या हिस्सेदारी से कहीं ज्‍यादा है. मुसलमानों को टिकट नहीं दिए गए. वहीं पार्टी ने सिर्फ यादवों को सिर्फ 6 फीसदी टिकट ही दिए. 

इस बीच, जद(यू) ने खुद को गैर-यादव ओबीसी और अत्यंत पिछड़े वर्गों (ईबीसी) के हिमायती के रूप में स्थापित किया है. नीतीश कुमार के कुर्मी समुदाय से होने के कारण, पार्टी ने कुर्मियों को 12 प्रतिशत और कोइरी/कुशवाहों को 13 प्रतिशत टिकट दिया और 'लव-कुश' धड़े को मजबूत किया है. अति पिछड़े वर्गों को जद(यू) के 19 प्रतिशत नामांकन मिले हैं, जो यादवों के प्रभाव से चिंतित पिछड़े समुदायों को एकजुट करने के एक रणनीतिक प्रयास को दर्शाता है. 

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