- बिहार की राजनीति में यादव समाज ने लालू प्रसाद के नेतृत्व में राजनीतिक चेतना और नेतृत्व की मजबूत लहर पैदा की
- यादव और मुस्लिम समुदाय की एकजुटता ने बिहार की राजनीति को लंबे समय तक स्थिर बनाए रखा है
- यादव समाज के भीतर स्थानीय युवा नेताओं के बढ़ते दावों से टिकट वितरण में कठिनाई आ रही है
बिहार की राजनीति का ‘सेंटर ऑफ ग्रेविटी' कहीं न कहीं यादव समाज रहा है. जबसे लालू प्रसाद यादव ने सत्ता की बागडोर संभाली, इस समुदाय के भीतर न सिर्फ राजनीतिक चेतना, बल्कि नेतृत्व की एक बुलंद लहर भी दौड़ पड़ी. ‘MY समीकरण', मुस्लिम और यादव समुदाय की एकजुटता ने लंबे समय तक बिहार को राजनीतिक तौर पर बांधे रखा. लेकिन वक्त बदला है, और अब यह एकता यूं ही टिकती नजर नहीं आ रही. आज हालात ऐसे हैं कि राज्य का शायद ही कोई विधानसभा क्षेत्र बचा हो, जहां यादव समाज का स्थानीय युवा नेता अपना दावा न ठोक रहा हो.उम्मीदें हैं, नजरें लालू परिवार पर टिकी हैं, लेकिन हर जगह टिकट पाना संभव नहीं. इस असमर्थता के चलते अब यादव समुदाय के भीतर ही अंसतोष की लहर फूट रही है.
खबर है कि कई इलाकों में, जहां भाजपा उम्मीदवार के मुकाबले गैर-यादव या मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में हैं, वहां यादव वोटर या तो चुप्पी साध ले रहे हैं या उनके कुछ हिस्से एनडीए की तरफ झुक सकते हैं. यह इस बात का संकेत भी है कि लालू और तेजस्वी यादव अब वह असर नहीं छोड़ पा रहे, जो उन्होंने पिछली दो बार डाला था. किसी भी बड़ी आबादी में दरार का असर गहरा होता है. यही बिहार के यादवों पर लागू होता है. अगर यह फूट बढ़ी, तो एनडीए को सीधा फायदा मिलना तय है. उधर, लालू यादव के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव का विद्रोह माहौल को और उलझा गया है. भले ही उनके वोट कम हों, पर संदेश बड़ा गया है.
इस बार एनडीए ने करीब 19 यादव उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है, यह संख्या पिछली बार की तुलना में उल्लेखनीय बढ़ोतरी है. यह आम धारणा के विपरीत है, क्योंकि अब तक माना जाता रहा है कि विधानसभा चुनावों में यादव वोटर एनडीए को नहीं मिलते. हालांकि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को हिंदुत्व के नाम पर इन वोटों का खासा समर्थन मिला था.यादव वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए भाजपा ने भूपेंद्र यादव, नित्यानंद राय और रामसूरत राय जैसे नेताओं पर दांव लगाया था. बावजूद इसके, 2020 के चुनाव में यह रणनीति उलटी पड़ गई. भूपेंद्र यादव बिहार से बाहर हो गए, रामसूरत राय को टिकट नहीं मिली, और नित्यानंद राय की पकड़ ढीली पड़ी. हां, नित्यानंद केंद्र में मंत्री बने रह पाए.
विश्लेषकों की मानें तो जिस दिन यादव मतदाताओं के बीच बड़ी फूट पड़ेगी, भाजपा सवर्ण और नीतीश कुमार के प्रभाव की सीमाओं से आगे जा पाएगी. कोशिशें वर्षों से जारी हैं, लेकिन मनचाही मंजिल फिलहाल दूर है. इतिहास दिलाता है कि भाजपा के शुरुआती दिनों में एक यादव, मुंगेर के नेता को प्रदेश संगठन की कमान मिली थी.शायद आज के समीकरणों के आईने में उस क्षण की असली अहमियत समझ में आ रही है. अब सबकी निगाहें 14 नवंबर पर हैं. क्या वाकई बिहार में राजनीति की नई पटकथा लिखी जाएगी, या यादव राजनीति एक बार फिर खुद को समेटने में कामयाब रहेगी?