- बिहार विधानसभा चुनाव से पहले VIP पार्टी के कई प्रमुख नेता भाजपा में शामिल हो गए, जिससे पार्टी कमजोर हुई
- मुकेश सहनी महागठबंधन में उप-मुख्यमंत्री पद के दावेदार, लेकिन पार्टी के अंदरूनी विवाद नहीं हो रहे खत्म
- भाजपा ने निषाद समुदाय को टारगेट कर VIP नेताओं को अपने साथ जोड़ने की रणनीति अपनाई है
"राजनीति में बस दो ही चीज़ें स्थायी होती हैं, हित और अवसर; बाकी सब तब तक टिकता है, जब तक समीकरण साथ दे." बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले यही समीकरण विकासशील इंसान पार्टी (VIP) के लिए उलझता नज़र आ रहा है. चुनावी रणभूमि में बीजेपी, आरजेडी और जेडीयू जैसे दिग्गजों की रणनीतिक चालों के बीच छोटी पार्टियों का अस्तित्व और प्रासंगिकता अक्सर दांव पर लगी होती है और इसी पृष्ठभूमि में वीआईपी सुप्रीमो मुकेश सहनी के लिए नई मुसीबत खड़ी हो गई है. चुनावी दौड़ शुरू होते ही उनकी पार्टी को बड़ा झटका तब लगा, जब प्रदेश उपाध्यक्ष रंजीत साहनी, मुजफ्फरपुर जिलाध्यक्ष महावीर सहनी और कई ज़िला स्तर के प्रभावशाली नेता भाजपा में शामिल हो गए. यह बदलाव महज़ संगठनात्मक टूट नहीं, बल्कि चुनावी मनोबल और राजनीतिक विश्वास की टूटन है.
इस दल-बदल की टाइमिंग बेहद अहम है. तीन हफ्ते बाद मतदान है और मुकेश सहनी महागठबंधन में रहकर उप-मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में खुद को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं. मंचों से वे निषाद समाज के हक और सम्मान की राजनीति की बात कर रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ उनकी पार्टी की भीतरी एकता सवालों में है. कई नेताओं का बीजेपी की ओर रुख़ करना सिर्फ VIP की राजनीतिक विश्वसनीयता को नहीं, बल्कि महागठबंधन की नैरेटिव रणनीति को भी चोट पहुंचा रहा है.
महावीर सहनी ने भी इसी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि पार्टी के भीतर निर्णय लेने की प्रक्रिया में लोकतंत्र खत्म हो चुका था और “कार्यकर्ताओं की बात सुनने वाला कोई नहीं था.”
बीजेपी ने इस मौके को पूरी तरह राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया. शामिलीकरण समारोह में मौजूद पार्टी नेता संजय जायसवाल ने कहा, “VIP के नेता समझ चुके हैं कि बिहार में असली विकास और प्रतिनिधित्व भाजपा ही दे सकती है. यह शुरुआत है, आगे भी लोग हमसे जुड़ेंगे.” दूसरी ओर, आरजेडी ने इसे गंभीरता से लेने के बजाय हल्का दिखाने की कोशिश की. आरजेडी प्रवक्ता चितरंजन गगन ने बयान दिया, “ऐसे छोटे-मोटे जाने आने से गठबंधन की ताकत कम नहीं होती. जनता हमारे साथ है.” लेकिन सच्चाई यह है कि यह घटना महागठबंधन की आंतरिक अस्थिरता को उजागर करती है.
सवाल यह भी है कि यह पलायन सिर्फ VIP तक सीमित क्यों नहीं रहा? खबरें यह भी हैं कि RJD के कुछ लोकल नेता भी चुपचाप बीजेपी के संपर्क में हैं. इसकी वजह सिर्फ राजनीतिक अवसरवाद नहीं, बल्कि भविष्य की सत्ता संभावनाओं का गणित भी है. विश्लेषक मानते हैं कि बीजेपी ने इस बार दलित-पिछड़ा समीकरण पर जोर देते हुए निषाद समुदाय को टारगेट किया है और यही वो इलाका है जहा अब तक मुकेश सहनी अपनी पकड़ मजबूत बताते रहे हैं. ऐसे में VIP नेताओं का बीजेपी की ओर जाना सोच-समझकर उठाया गया कदम लगता है, जो भविष्य की राजनीतिक साझेदारी और संभावित मंत्री पदों की तरफ संकेत कर रहा है.
साफ़ है कि इस पूरे घटनाक्रम ने VIP को सिर्फ संगठनात्मक झटका नहीं दिया, बल्कि उसके अस्तित्व और नेतृत्व मॉडल पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है.
जो बात सबसे अधिक ध्यान खींचती है, वह यह है कि मुकेश सहनी की राजनीतिक कहानी हमेशा संघर्ष और अवसर की कहानी रही है. कभी एनडीए के साथ, कभी महागठबंधन में, कभी मोदी-शाह की तारीफ और कभी उनकी आलोचना, सहनी ने खुद को हमेशा ‘सर्वाइवर' की तरह पेश किया है. लेकिन इस बार मामला उतना सरल नहीं दिख रहा. उनके विरोधियों की चुनौती बढ़ रही है और समर्थकों में अनिश्चितता फैलनी शुरू हो चुकी है.
चुनावी राजनीति में आंधियां अचानक नहीं उठतीं, वे असंतोष की धीमी हवाओं से जन्म लेती हैं. और शायद वही हवा VIP के कैंप में चल पड़ी है. सवाल अब यह है कि क्या मुकेश सहनी इस टूटन को थाम पाएंगे या फिर VIP भी बिहार की कई छोटी पार्टियों की तरह सियासी हाशिए पर धकेल दी जाएगी?
अंत में चुनाव से पहले उठता सबसे बड़ा सवाल यह है... क्या यह दलबदल सिर्फ कुछ नेताओं का पलायन है, या VIP के भविष्य का संकेत?
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