बिहार चुनाव 2025,दल-बदल, भरोसे की बदलती परिभाषा और लोकतंत्र की नई चुनौती

दल-बदल का एक आर्थिक पहलू भी है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. मजबूत पार्टी में शामिल होने से पैसे, लोग, प्रचार सामग्री, मीडिया कवरेज,सब कुछ आसानी से मिल जाता है.

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पटना:

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 सिर्फ सीटों की लड़ाई नहीं थी, यह राजनीति के बदलते चेहरे का साफ़ आईना भी था. इस चुनाव ने यह दिखा दिया कि राजनीति में निष्ठा, सिद्धांत और विचारधारा जितनी बार बोली जाती है, उतनी बार निभाई नहीं जाती. जैसे ही चुनाव का समय पास आता है, नेता अपने दल, अपने वादों और अपने पुराने रुख को पीछे छोड़कर नई पार्टी में जगह तलाशने लगते हैं. इस बार भी वही हुआ. चुनाव के नतीजों ने दिखा दिया कि सिर्फ पार्टी बदलकर चुनाव लड़ने वाले कई उम्मीदवार जनता का समर्थन जीत ले गए. यह सवाल उठाता है कि आख़िर जनता पार्टी को वोट देती है या नेता को?

इस चुनाव में कई नेता ऐसे थे, जिन्होंने चुनाव से कुछ महीने पहले ही अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शरण ली. चुनाव आयोग और विभिन्न विश्लेषणों के आंकड़े बताते हैं कि ऐसी लगभग 40% उम्मीदवार इस बार जीतकर विधानसभा पहुंचे, जो एक बेहद बड़ा प्रतिशत है. 243 सीटों में से लगभग 28 सीटों पर उम्मीदवारों ने पिछले दो साल में पार्टी बदली और उनमें से लगभग आधे उम्मीदवारों ने अपने नए निशान के साथ जनता का भरोसा जीता. यह कोई छोटी घटना नहीं है,यह दिखाता है कि बिहार की राजनीति में पार्टी की छवि से ज्यादा नेता की व्यक्तिगत पहचान मायने रखती है.

बिहार की राजनीति की सबसे खास बात है कि यहां स्थानीय नेता का प्रभाव बहुत गहरा होता है. लोग अक्सर कहते हैं कि अमुक नेता हमारे गाँव का रास्ता जानते हैं, वो हमारे परिवार का काम देखते हैं, और वो हमारी जाति-बिरादरी के हैं. इस तरह का भरोसा पार्टी की लाइन से बहुत ऊपर जाकर काम करता है. यही कारण है कि जब वही नेता चुनाव के समय पार्टी बदलता है, तो मतदाता अक्सर उसकी नई पार्टी को भी उसी सहजता से स्वीकार कर लेते हैं.उनके लिए नेता का पुराना घर या नया घर इतना अहम नहीं रहता अहम यह होता है कि वह उनके इलाके का पुराना जाना-पहचाना चेहरा है.

मखदूमपुर से डॉ. दिनेश चौधरी ने आरजेडी छोड़कर अचानक बीजेपी का दामन थाम लिया. दो बार के विधायक रहे चौधरी अपने क्षेत्र में यादव जाटव समीकरण पर मजबूत पकड़ रखते थे, लेकिन टिकट को लेकर पार्टी नेतृत्व से मतभेद बढ़ने पर उन्होंने एनडीए की लहर को सुरक्षित विकल्प माना. समर्थकों ने भी इसे विकास के लिए “मजबूत प्लेटफॉर्म” की ओर कदम बताया, जिससे उनकी जीत और भी पक्की हो गई. इसी तरह हथुआ से कांग्रेस की पूर्व मुखर महिला नेता मीरा सिंह ने टिकट विवाद से निराश होकर जेडीयू जॉइन किया. सुशासन और महिला मतदाताओं के समर्थन के संयोजन ने उन्हें वह बढ़त दी जिसने चुनाव को एकतरफा कर दिया.

फुलपरास के विपिन कुमार ‘मंडल' ने वीआईपी का टिकट छोड़कर लोजपा (रामविलास) का हाथ पकड़ा क्योंकि उन्हें लगा कि युवा नेतृत्व और एनडीए की शक्ति उनके जनाधार को और बढ़ाएगी.चिराग पासवान की लोकप्रियता और सीट बंटवारे की रणनीति ने उन्हें जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई. अलौली में अशोक पासवान ने टिकट कटने की आशंका से आरजेडी छोड़कर जीतन राम मांझी की पार्टी हम (HAM) जॉइन की. अपनी उप-जाति में मजबूत पकड़ और एनडीए का सिंबल मिलते ही उनका चुनावी गणित उनके पक्ष में झुक गया.

कुटुंबा की सुमन देवी ने विचारधारा से ज्यादा व्यावहारिक राजनीति को प्राथमिकता देते हुए वामपंथी दल सीपीआई–एमएल (लिबरेशन) से आरएलएम (राष्ट्रीय लोक मोर्चा) की ओर प्रस्थान किया. वाम आधार के सिमटने और जीत की कम संभावना देख उन्होंने उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी चुनी, जिसे एनडीए की शक्ति का सीधा लाभ मिला. उनके इस बदलाव को समर्थकों ने “समय के साथ बदलाव” कहते हुए स्वीकार किया, और उन्होंने भी व्यापक जनाधार की बदौलत निर्णायक बढ़त हासिल की.

कई जगहों पर लोगों ने खुलकर कहा कि उन्हें नेता चाहिए,चाहे वह लालटेन पकड़े हो या कमल.जनता की यह सोच दिखाती है कि राजनीति अब पार्टी की विचारधारा से ज़्यादा व्यक्ति की पहुंच और पहचान पर टिकी है. कई बुजुर्ग मतदाता कहते मिले कि नया आदमी आएगा तो उन्हें फिर से शून्य से शुरुआत करनी होगी नई पहचान, नया रिश्ता, नया भरोसा. जबकि पुराना नेता वर्षों से उनके सुख-दुख का हिस्सा रहा है.

विशेषज्ञ भी मानते हैं कि यह “लोकल हीरो” मॉडल बिहार में सबसे ज्यादा काम करता है. राजनीति शुद्ध वैचारिक नहीं होती,वह जातीय समीकरण,स्थानीय स्तर पर किए गए छोटे-बड़े काम,परिवार का सामाजिक प्रभाव और नेता का ‘हमारे बीच का' होना,इन सभी पर आधारित होती है. इन सबमें पार्टी का नाम कई बार पीछे रह जाता है. इसी वजह से दल-बदल करने वाले नेता नई पार्टी की ताकत और अपने पुराने जनाधार के मिलेजुले असर से आसानी से चुनाव जीत जाते हैं. खासकर जब वे एनडीए जैसे बड़े और मजबूत गठबंधन में शामिल हो जाते हैं, तो उन्हें बिना किसी कठिनाई के संसाधन, प्रचार और समर्थन मिलता है.

इस बढ़ते दल-बदल ने दल-बदल विरोधी कानून की कमजोरी को भी उजागर कर दिया है. यह कानून सिर्फ तब लागू होता है जब कोई विधायक सदन में रहते हुए पार्टी बदलता है. लेकिन चुनाव आने पर अगर वह इस्तीफा देकर नई पार्टी में शामिल हो जाए, तो कानून कुछ नहीं कर सकता. यही कमी नेताओं को खुली छूट देता है कि जब चाहें, जहाँ चाहें, अपना घर बदल लें. यह स्थिति बताती है कि इस कानून में सुधार की बेहद जरूरत है, ताकि जनता के वोट का असल सम्मान हो सके.
दल-बदल का एक आर्थिक पहलू भी है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता. मजबूत पार्टी में शामिल होने से पैसे, लोग, प्रचार सामग्री, मीडिया कवरेज,सब कुछ आसानी से मिल जाता है. चुनाव अब सिर्फ विचारों की लड़ाई नहीं है, यह संसाधनों की भी लड़ाई बन चुका है. कमजोर पार्टी में नेता चाहे जितना लोकप्रिय हो, अगर उसकी पार्टी के पास साधन नहीं हैं, तो उसकी जीत मुश्किल हो जाती है. यही वजह है कि चुनाव से पहले कई नेता अपनी हार से बचने और जीत सुनिश्चित करने के लिए दल-बदल को सबसे सुरक्षित रास्ता मानने लगे हैं.

 

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