चुनाव खत्म होने के अगले दिन चुनाव पर बात करना ऐसा ही लगता है जैसे दीवाली के दूसरे दिन हरी घास पर पटाखों के लाल-लाल बिखरे हुए कागज को देखकर लगता है. थकान सा लगता है कि इसे अभी साफ करें या कुछ दिन रहने दें. कहने का मतलब यह है कि नया कहने के लिए कुछ बचता नहीं है. चिराग पासवान का पटाखा भले ना फूटा हो लेकिन उससे झोले में रखे पटाखों में आग लग गयी. हालांकि कुछ पटाखे फूटने से रह गए. ऐसे समय में जब प्रदूषण के कारण पटाखों पर बैन की बात हो रही है वैसे में पटाखे को रूपक की तरह प्रयोग करना गलत हो सकता है, ठीक उसी तरह जैसे चिराग अगर नीतीश के लिए गलत हैं तो बीजेपी के लिए अच्छे कैसे हो सकते हैं?