दिल्ली हिंसा में कई ज़िंदगियां बर्बाद हो गईं, कई घर बर्बाद हो गए, गाढ़ी मेहनत कर कमाई गई एक एक पाई बर्बाद हो गई. जिसका भी ये सब गया उसे अब कौन लौटा सकता है. पैसा तो कहीं से लौट भी आए, ज़िंदगियां कहां से लौटाएगा. लोगों के घरों के जो चिराग़ इस आग में बुझ गए उन्हें कौन लौटाएगा. इस हिंसा में जो भी शामिल थे वो अब कहीं तो बैठे होंगे, क्या सोच रहे होंगे, क्या किसी को पश्चाताप महसूस हो रहा होगा, क्या कोई ख़ुद सामने आकर कहेगा कि उसका दिमाग फिर गया था, उससे ग़लती हो गई. शायद नहीं क्योंकि इनमें से अब भी कई लोग यही सोच रहे होंगे कि उन्होंने तो पुराना हिसाब किताब चुकता कर दिया है, अपनी अपनी खुन्नस मिटा दी है.