इस हफ़्ते अर्थव्यवस्था को लेकर एक बार फिर काफी घमासान हुआ. वीकेंड पर रविशंकर प्रसाद का 120 करोड़ बॉक्स ऑफिस कलेक्शन वाला बयान. फिर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति की सरकार को हिदायत कि वो नरसिम्हा-मनमोहन मॉडल को फॉलो करे, फिर नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी की मोदीनॉमिक्स की आलोचना, फिर पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजनका एक लेक्चर में कहना कि बहुसंख्यावाद यानी कि मजोरिटीरियनिज़्म भारत की अर्थव्यवस्था को भी नीचे ले जा रहा है. और इस सबपर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन का पलटवार की बैंकों की दुर्दशा मनमोहन और रघुराम राजन के दौर में हुई. और हां मनमोहन सिंह का बयान कि अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए दोष मढ़ना नहीं सही बीमारी का पता लगाना ज़रूरी. इसपर पीयूष गोयल का पलटवार कि हम मनमोहन राज के कुशासन को अब तक भोग रहे हैं और वो अपने गिरेबान में झांक के अपने शासनकाल को देखें, ये अर्थव्यवस्था पर ना तो पहली बहस है और ना ही आखिरी. तो आज मुक़ाबला में हमारा सीधा सवाल है. क्या मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था सुधारने से पहले ठीक से समझी है बीमारी? क्या अब तक उठाए कदम हैं प्रभावी? और आज की इस चरमराई अर्थव्यवस्था के लिए क्या अब भी मनमोहन सिंह ही ज़िम्मेदारी लेते रहें?