बिहार: चुनाव से पहले नेताओं का कदमताल
कार्यकर्ता सम्मेलन और यात्राएं बिहार की राजनीति पर क्या असर डाल रही है या इनका क्या प्रभाव हो सकता है, उसके बारे में बता रहे हैं अजीत कुमार झा.

बिहार में इस साल नवंबर में विधानसभा चुनाव हो सकते हैं. इन दिनों वहां की आबोहवा में राजनीतिक नारों और कार्यक्रमों की गूंज है. बीजेपी कार्यकर्ता सम्मेलनों का आयोजन कर रही है तो विपक्ष की यात्राओं की धूम है.
बीजेपी का कार्यकर्ता सम्मेलन
बीजेपी के कार्यकर्ता सम्मेलन में पार्टी कार्यकर्ता छायादार हॉलों या खुली जगह पर लगे तंबुओं में जमा होते हैं. वहाँ केसरिया झंडे पुरानी सदियों के संकेतों की तरह लहराते हैं. इन सम्मेलनों में बीजेपी आम जनता से ज्यादा उन महिला-पुरुषों से बात करती है, जो पार्टी के संदेश को गांव-गांव पहुंचाएंगे. ये महिला-पुरुष पटना में दिए गए भाषण को चंपारण, मधुबनी और नालंदा के दूर-दराज के गांवों तक पहुंचाएंगे. ये कार्यकर्ता सम्मेलन इस बात की रणनीति बनाने के औजार हैं कि बिहार की 243 विधानसभा क्षेत्रों के विशाल विस्तार में कोई बूथ अनदेखा न रह जाए.
विपक्ष की यात्राएं
इसके विपरीत, पैदल यात्रा पैरों पर चलता लोकतंत्र है. यह कुर्ते पर चिपकते धूल के कण है, सड़क किनारे दौड़ते बच्चे हैं, जो नेता की एक झलक पाना चाहते हैं, हैंडपंप पर बर्तन धोती महिलाएं हैं, जो रुककर सुनती हैं. राजद नेता तेजस्वी यादव चलते हैं, तो वे अपने पिता की याद को एक अदृश्य झंडे की तरह थामे रहते हैं, जब राहुल गांधी इससे जुड़ते हैं तो यह कांग्रेस का अपने फटे-पुराने कपड़ों को सिलने का प्रयास नजर आता है, जब दीपांकर भट्टाचार्य जुलूस निकालते हैं, तो उसमें लगने वाले नारे हर तरह की असमानता का तीखा विरोध होते हैं. प्रशांत किशोर हैं, जो एक राजनेता से अधिक सर्वेक्षक की तरह पूरे राज्य में घूमते हैं, जो असंतोष और शिकायतों को नए बिहार के ब्लूप्रिंट में शामिल करते रहते हैं.

राहुल गांधी, तेजस्वी यादव और दीपांकर भट्टाचार्य ने बिहार करीब 17 दिनों तक वोटर अधिकार यात्रा की.
बीजेपी की ताकत व्यवस्था करने में है, वह समर्थन को वोटों में बदल देती है. बिहार के बूथों पर चुनाव अक्सर बड़े भाषणों और घोषणाओं से नहीं लड़े जाते हैं, बल्कि अदृश्य कार्यकर्ताओं के दम पर लड़े जाते हैं, जो चुनाव जिताते या हराते हैं. वहीं, पैदल यात्राएं राजनीति की पुरानी शैली की याद ताजा कर देती हैं- चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधी जी की पदयात्राएं, इमरजेंसी विरोधी आंदोलन में जयप्रकाश नारायण की सड़कों से लगाई गई पुकार.
सम्मेलनों और यात्राओं का असर
विधानसभा में कौन भारी पड़ेगा? बीजेपी के सम्मेलन, अपनी रणनीतिक स्पष्टता के साथ यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि पार्टी लड़खड़ाए नहीं. ये सम्मेलन राजनीति को एक सुनियोजित अभियान में बदल देते हैं. इसके बाद भी धूल भरी, भावुक, अप्रत्याशित पदयात्राएं मन को झकझोरने और मतदाताओं को जगाने का मौका देती हैं, जो अक्सर गणितीय गणना से अधिक भावनाओं से प्रभावित होते हैं.
आखिरकार बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां राजनीति लोगों के शरीर और मन दोनों में रहती है. ऐसे में एक सम्मेलन शिक्षा दे सकता है तो एक पदयात्रा प्रेरणा दे सकती है. भगवा कार्यकर्ता कार्यकुशलता की गारंटी दे सकते हैं, लेकिन पदयात्राएं लोगों में विश्वास जगा सकती हैं. जैसे-जैसे मानसून सर्दी में बदलेगा और नवंबर नजदीक आएगा, बिहार वैसे ही खड़ा रहेगा जैसा वह अतीत में अक्सर रहा है- लोकतंत्र की दो कल्पनाओं के बीच- एक अनुशासित, एक अव्यवस्थित; एक संगठित, एक तात्कालिक. अंत में, शायद, मतदाता ही तय करेगा कि बिहार का भविष्य बीजेपी के सम्मेलनों में एक मशीन की तरह जमा होगा या पदयात्रा की लंबी, थकी हुई सड़कों पर चलकर अस्तित्व में आएगा.
बिहार की धूलभरी सड़कों पर जहां गन्ना लदी गाड़ियां लहराती हुई चलती हैं और गंगा भूले-बिसरे घाटों पर धीमी गति से बहती है, राजनीति अपने सबसे पुराने रूपक में लौट आई है- पैदल यात्रा. वह राज्य जिसने कभी साम्राज्यों की टापों और सत्याग्रहियों के मार्च को सुना था, अब यात्राओं की ध्वनि से गूंज रहा है, राजनीतिक तीर्थयात्राएं जो हर गली-मोहल्ले को जनमत संग्रह और हर मील को घोषणापत्र में बदलने की कोशिश करती हैं. जहां विभिन्न विचारधाराओं के राजनेता अपनी बातों पर अमल करते हैं, वहीं बिहार के ग्रामीण इलाके जॉन डेनवर के लोकगीत- 'टेक मी होम, कंट्री रोड्स...' के भोजपुरी और मैथिली संस्करण को गुनगुनाते हुए लगते हैं.
विपक्ष की वोटर अधिकार यात्रा
नवंबर 2025 के करीब आते ही एक थके हुए राजवंश के उत्तराधिकारी राहुल गांधी उन गाँवों में हल्के-फुल्के कदम रख रहे हैं, जहां बच्चे आज भी उन्हें एक ऐसी आत्मीयता से 'राहुल भैया' कहते हैं. उनकी यह यात्रा जीत से अधिक मेलजोल की है- सड़क किनारे चाय की दुकानों पर रुकना, उन किसानों की ओर सिर हिलाना जो उनका हाथ आवश्यकता से अधिक देर तक थामे रहते हैं, इस धरती पर अपने परिवार की लंबी परछाईं को याद दिलाते हुए एक अधिक लोकतांत्रिक समय का वादा करना.

महागठबंधन के वोटर अधिकारी यात्रा में आईं महिलाएं.
तेज-तर्रार तेजस्वी यादव अलग तरह से चलते हैं. वे चलते नहीं, बल्कि उछलते हैं, लालू के बेटे, बोझ और आशीर्वाद दोनों लेकर चलते हैं. जहां राहुल स्मृतियां पेश करते हैं, वहीं तेजस्वी युवाओं पर जोर देते हैं. दूर-दराज के इलाकों में उनकी यात्रा एक अंतहीन टेस्ट मैच की क्रिकेट पारी जैसी लगती है, नपी-तुली, लेकिन बयानबाजियों से भरी हुई, एक आम लड़के के लिए रोजगार और सम्मान की अपील. उनके लिए, पैदल चलना तीर्थयात्रा कम, तलाश ज्यादा है. इस उम्मीद का पीछा करना कि बिहार के युवा दूसरे शहरों में प्रवासी बनकर रहने से कहीं अधिक हो सकते हैं.
दीपांकर भट्टाचार्य का रास्ता
वामपंथी दीपांकर भट्टाचार्य ने कठिन और शांत रास्ता चुना है. बिहार के 23 जिलों में पड़ने वाले 174 विधानसभा क्षेत्रों में चली 1300 किलोमीटर लंबी वोटर अधिकार यात्रा में न तो गाड़ियों का काफिला है और न ही पोस्टर. लेकिन उसमें एक जिद नजर आती है, एक जिद्दी आदर्शवाद की झलक है, एक जिद कि गरीबों का अब भी महत्व है, लोकतंत्र पर केवल बातें ही नहीं, बल्कि कदम-कदम पर चलना भी जरूरी है. वह दृढ़ विश्वास की लय के साथ चलते हैं, हाथ हिलाने के लिए नहीं, बल्कि सुनने के लिए रुकते हैं, मानो राजनीति तमाशा कम, किसी पीपल के पेड़ की छांव में किए गए संवाद ज्यादा हो.
प्रशांत किशोर की पदयात्रा
एक प्रशांत किशोर हैं, जो राहुल, तेजस्वी और दीपांकर से ज्यादा, करीब दो साल से पैदल चल रहे हैं, मानो उन्होंने तय कर लिया हो कि बिहार को समझने का एकमात्र तरीका उसकी हर सड़क, हर पंचायत, हर उपेक्षित पुलिया पर अपने जूते घिसना ही है. उनकी 'जन सुराज' पार्टी की वेबसाइट इस पदयात्रा का वर्णन इस प्रकार किया गया है, "जन सुराज पदयात्रा केवल पूरे बिहार में पैदल चलने के बारे में नहीं है, यह बिहार के लोगों को एकजुट करने और बदलाव लाने का एक आंदोलन है." वेबसाइट पर प्रशांत किशोर की पदयात्राओं का नवीनतम आँकड़ा उपलब्ध है. उन्होंने नौ अगस्त, 2025 तक कुल 665 दिनों में 2,697 गाँवों, 1,319 पंचायतों और 235 ब्लॉकों की पदयात्रा की है.

जन सुराज के संस्थापक प्रशांत किशोर बिहार में पिछले काफी समय से पदयात्राएं कर रहे हैं.
प्रशांत किशोर के अंग्रेजी स्पेलिंग में आने वाला 'पी' सटीकता का प्रतीक है. पीके (उनका लोकप्रिय नाम) की पदयात्रा किसी राजनेता की यात्रा से ज्यादा एक रणनीतिकार के प्रयोग को एक व्रत में बदल देने जैसी है, जहां हर जिला एक आंकड़ा बन जाता है, हर मुलाकात एक सर्वेक्षण का सवाल बन जाता है. उनकी गति स्थिर, सोची-समझी, किसी मसीहा से ज्यादा साधु-संतो जैसी है. इसके बाद भी उनकी दृढ़ता भविष्यवाणी की तरह लगने लगी है.
पदचिन्हों का रंगमंच
नेताओं को गुजरते हुए देखना, राहुल अपने अतीत के साथ, तेजस्वी अपनी बेचैनी के साथ, दीपांकर अपनी सादगी के साथ और किशोर अपनी दृढ़ता के साथ. उनके साथ-साथ उनकी पार्टी के छोटे नेता, पार्टी के लोग, नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के प्रतिद्वंद्वी उनके साथ इस उम्मीद में चलते हैं कि इस पदयात्रा की धूल उन्हें वैधता प्रदान करेगी. इस तरह से बिहार पदचिन्हों का रंगमंच बन गया है, एक ऐसा राज्य जहां नेताओं का मूल्यांकन उनकी रैलियों में उमड़ी भीड़ से नहीं, बल्कि उनके पैरों के खुरदुरेपन से होता है.
यात्राओं की लड़ाई केवल चुनावी नहीं है. यह प्रतीकात्मक है, लगभग आध्यात्मिक, उपेक्षा और पलायन से त्रस्त एक ऐसे राज्य में, जहां पटना से निकलने वाली ट्रेनें आने वाली ट्रेनों से ज़्यादा भीड़भाड़ वाली होती हैं, पैदल चलना अपने आप में रुकने, जुड़ाव और जाने से इनकार करने का एक रूपक है. पूरे बिहार की यात्रा लोगों को यह बताना है, ''मैं यहां हूं, मैं तुम्हारे साथ रहूंगा.''
पदयात्रा की लय के पीछे वोटों का गणित छिपा है. हर कदम की गिनती होती है, हर किलोमीटर को निर्वाचन क्षेत्रों और जातिगत समीकरणों के हिसाब से नापा जाता है. ये यात्राएं भले ही तीर्थयात्रा जैसी लगें, लेकिन ये छद्म अभियान भी हैं, जिनमें धूप और पसीने की खुशबू के साथ-साथ मतदान केंद्रों की स्याही भी है.

नवंबर 2025 में, बिहार केवल वोट ही नहीं देगा, बल्कि इन यात्राओं को तौलेगा भी. क्या राहुल के कदमों ने कोई याद जगाई? क्या तेजस्वी के कदमों ने आकांक्षाओं को जगाया है? क्या दीपंकर की तपस्या ने अंतरात्मा को झकझोरा है? क्या किशोर की पदयात्रा निराशावाद को तोड़ पाई है? इन सभी सवालों के जवाब चुनावी नारों में नहीं, बल्की विधानसभा चुनाव में मिलने वाली सीटों में मिलेगा.
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