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Explainer : विज्ञान का कमाल... 13 हजार साल बाद अचानक कैसे जिंदा हो गए ये 'डायर वुल्फ'

Dire Wolf : वैज्ञानिकों ने डायर वूल्फ़ नामक एक प्राचीन भेड़िये की प्रजाति को फिर से जीवंत किया है, जो लगभग 13,000 साल पहले लुप्त हो गई थी. इस प्रजाति के तीन पिल्ले तैयार किए गए हैं - रोमुलस, रेमस और खलीसी. खलीसी अभी ढाई महीने की है और उसे दुनिया की नजरों से दूर रखा गया है.

Explainer : विज्ञान का कमाल... 13 हजार साल बाद अचानक कैसे जिंदा हो गए ये 'डायर वुल्फ'

धरती पर आज तक जीवों की जितनी भी प्रजातियां पनपी हैं, उनमें से 99% से ज़्यादा प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं. लुप्त हो चुकी प्रजातियों की तादाद लगभग 5 अरब बताई जाती है. हालांकि यह संख्या सटीक नहीं हो सकती है क्योंकि कई प्रजातियों के बारे में हम अभी तक नहीं जानते हैं. लुप्त हो चुकी प्रजातियों का पता हमें उनके जीवाश्मों से चलता है. क्लाइमेट चेंज के कारण ध्रुवीय इलाकों में बर्फ़ पिघलने से लुप्त हो चुके कई जीवों के जीवाश्म सामने आ रहे हैं. वैज्ञानिक बीते कुछ दशकों से ऐसे जीवाश्मों के ज़रिए लुप्त होते जीवों को फिर से धरती पर उतारने की कोशिश कर रहे हैं. यह प्रक्रिया जटिल और चुनौतीपूर्ण है. लेकिन यह हमें प्राचीन जीवन के बारे में जानने और भविष्य में जीवन को संरक्षित करने के लिए महत्वपूर्ण है.

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डायर वूल्फ़ की एक प्रजाति को फिर से जीवंत किया
वैज्ञानिकों ने जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से एक अद्भुत उपलब्धि हासिल की है - उन्होंने लगभग 13,000 साल पहले लुप्त हो चुके डायर वूल्फ़ की एक प्रजाति को फिर से जीवंत किया है. इस प्रजाति के दो पिल्ले, जिनका नाम रोमुलस और रेमस है, अब अमेरिका के एक वन्य जीव अभयारण्य में पाले जा रहे हैं. ये पिल्ले देखने में किसी सामान्य कुत्ते के पिल्लों जैसे ही लगते हैं, जो एक दूसरे के पीछे भागते, आपस में लड़ते और नाक भिड़ाते हैं. हालांकि, उनकी तस्वीरें प्यारी लग सकती हैं, लेकिन उनका व्यवहार इतना प्यारा नहीं हो सकता है. वैज्ञानिकों ने इस प्रजाति को फिर से जीवंत करने के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग किया है, जो एक जटिल और चुनौतीपूर्ण प्रक्रिया है. इस उपलब्धि से हमें प्राचीन जीवन के बारे में जानने और भविष्य में जीवन को संरक्षित करने के लिए महत्वपूर्ण जानकारी मिल सकती है.

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डायर वूल्फ़...  शक्तिशाली और जंगली प्रजाति

दोनों पिल्ले अब छह महीने के हो चुके हैं और उनका व्यवहार एक सामान्य कुत्ते के पिल्लों से अलग है. जब आप उनके करीब जाते हैं, तो वे आपके पास नहीं आते हैं, बल्कि दूर भाग जाते हैं. छह महीने में, उनका आकार भी काफी अलग हो गया है. वे अब चार फीट लंबे हो चुके हैं और उनका वजन 36 किलोग्राम से अधिक है. जब वे अपने पूरे आकार में पहुंचेंगे, तो उनकी लंबाई छह फीट होगी और वजन लगभग 70 किलोग्राम होगा, जो एक बड़े भेड़िए के आकार के समान होगा. उनका यह आकार और व्यवहार उन्हें अपने पूर्वजों, डायर वूल्फ़ की तरह बनाता है, जो एक समय में एक शक्तिशाली और जंगली प्रजाति थी.

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वैज्ञानिकों ने डायर वूल्फ़ नामक एक प्राचीन भेड़िये की प्रजाति को फिर से जीवंत किया है, जो लगभग 13,000 साल पहले लुप्त हो गई थी. इस प्रजाति के तीन पिल्ले तैयार किए गए हैं - रोमुलस, रेमस और खलीसी. खलीसी अभी ढाई महीने की है और उसे दुनिया की नजरों से दूर रखा गया है. डायर वूल्फ़ ग्रे वूल्फ़ की सबसे करीबी प्रजाति मानी जाती है. ये भेड़िये कभी उत्तर अमेरिकी महाद्वीप के उत्तर में कनाडा से लेकर दक्षिणी अमेरिका के वेनेजुएला तक पाए जाते थे. उनके कई जीवाश्म इस पूरे इलाके में मिल चुके हैं. Colossal Biosciences नामक एक बायोटेक्नोलॉजी कंपनी ने जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए इन जीवाश्मों के आधार पर डायर वूल्फ़ को फिर से जीवंत किया है. ये पिल्ले अब एक वन्य जीव अभयारण्य में पाले जा रहे हैं और उनका आकार और व्यवहार एक सामान्य कुत्ते के पिल्लों से अलग है.

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जीवंत करने के लिए एक जटिल प्रक्रिया
कोलोसल के वैज्ञानिकों ने डायर वूल्फ़ को फिर से जीवंत करने के लिए एक जटिल प्रक्रिया का पालन किया. उन्होंने प्राचीन जीवाश्मों से सुरक्षित निकाले गए डीएनए का अध्ययन किया, जिसमें अमेरिका के ओहायो से मिले 13,000 साल पुराने डायर वूल्फ़ के एक दांत और इदाहो से मिली 72,000 साल पुरानी डायर वूल्फ़ की एक खोपड़ी शामिल थी. वैज्ञानिकों ने इसके बाद एक जीवित ग्रे वूल्फ़ के ब्लड सेल्स को लिया और जेनेटिक इंजीनियरिंग की CRISPR तकनीक के जरिए उसमें बदलाव किया. इस जेनेटिक मैटीरियल को एक घरेलू कुत्ते के egg cell में ट्रांसफर किया गया और भ्रूण तैयार होने के बाद उन्हें घरेलू कुत्ते के गर्भ में पाला गया.

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  • 62 दिन बाद, ये जेनेटिकली इंजीनियर्ड बच्चे पैदा हुए. वैज्ञानिकों ने ग्रे वूल्फ़ की 14 जीन्स में 20 बदलाव किए, जिससे उन्हें डायर वूल्फ़ की विशिष्ट विशेषताएं जैसे कि सफेद फर, बड़ा आकार, ताकतवर कंधे, चौड़ा मुंह, बड़े दांत और जबड़े, ज्यादा ताकतवर टांगें और खास तरह की आवाज मिलीं.
  • यह काम आसान नहीं था, क्योंकि जेनेटिक इंजीनियरिंग की आधुनिकतम तकनीकों के जरिए ही यह संभव हो पाया. कुछ साल पहले जो साइंस फिक्शन लगता था, अब वह सच्चाई के धरातल पर उतरता जा रहा है.
  • वैज्ञानिकों के अनुसार, डायर वूल्फ़ प्रजाति के ये तीन बच्चे जैसे-जैसे बड़े होंगे, उनमें शिकार करने या शिकार का पीछा करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति विकसित होगी. हालांकि, वे शायद कभी नहीं सीख पाएंगे कि किसी बड़े हिरन को कैसे घातक हमला कर तुरंत मार गिराना है, क्योंकि यह कला पीढ़ियों में सीखी जाती है जो भेड़ियों को उनकी मां सिखाती है.
  • विज्ञान के जरिए विलुप्त हो चुकी डायर वूल्फ़ की प्रजाति को फिर से जीवंत करना एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन उनके सामाजिक व्यवहार को विकसित करना एक अलग मुद्दा है.
  • यह दिलचस्प है कि HBO की ड्रामा सीरीज़ Game of Thrones में भी डायर वूल्फ़ को दिखाया गया था, जिसे लेखक जॉर्ज आरआर मार्टिन ने लिखा है. मार्टिन कोलोसल बायोसाइंसेस में निवेशक और एडवाइज़र के तौर पर भी शामिल हैं.
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सोशल मीडिया पर एक तस्वीर वायरल हुई है जिसमें कोलोसल साइंसेस द्वारा तैयार डायर वूल्फ़ के दो नवजात बच्चों को सीरीज़ से जुड़े एक आयरन थ्रोन पर दिखाया गया है. यह तस्वीर इस बात का प्रतीक है कि कैसे विज्ञान और कल्पना एक दूसरे के साथ जुड़ सकते हैं.

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कोलोसल नामक कंपनी ने जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए विलुप्त प्रजातियों को फिर से जीवंत करने के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति की है. इस कंपनी की स्थापना केवल चार साल पहले हुई थी, लेकिन इसके बावजूद, इसने 130 वैज्ञानिकों की टीम के साथ कई विलुप्त प्रजातियों को वापस धरती पर उतारने की कोशिश में है.

कोलोसल की सूची में डायर वूल्फ़ के अलावा वूली मैमथ, डोडो और तस्मानियन टाइगर जैसी प्रजातियां शामिल हैं. मार्च में, कंपनी ने वैज्ञानिक समुदाय को एक बड़ी घोषणा के साथ चौंका दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि उन्होंने वूली मैमथ का डीएनए कॉपी कर, उसे एक चूहे के डीएनए के साथ जोड़कर एक वूली माउस को तैयार कर लिया है.

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इस वूली माउस में मैमथ जैसा ही लंबा, सुनहरा फर कोट है और accelerated fat metabolism है, जो शरीर में तेजी से ऊर्जा तैयार करने में मदद करता है. यह विशेषता मैमथ को आइस एज में शून्य से नीचे के तापमान में रहने में मदद करती थी.

वूली मैमथ एक विशाल हाथी की प्रजाति थी जो लगभग सात लाख साल तक उत्तर अमेरिका और यूरेशिया के एक बड़े भूभाग पर रहती थी. वे लगभग चार हजार साल पहले धरती से विलुप्त हो गए थे. वूली मैमथ को आज के एशियाई हाथियों का रिश्तेदार माना जाता है.

वैज्ञानिकों को वूली मैमथ के कई जीवाश्म साइबेरिया, अलास्का और कनाडा के अलग-अलग इलाकों में मिले हैं. इनमें से कई जीवाश्म बर्फ में दबे होने के कारण काफी सुरक्षित रहे हैं. कुछ जीवाश्म तो इतने सुरक्षित मिले हैं कि उनकी चमड़ी, बाल और दांत तक ऐसे लगे जैसे कुछ साल ही पुराने हों.

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एक ऐसा ही जीवाश्म, जो लगभग पचास हजार साल पुराना है, साइबेरिया के याकुतिया प्रांत में मिला है. इस बेबी मैमथ का नाम याना है, जो याना नदी बेसिन के किनारे पाए जाने के कारण रखा गया है. इस जीवाश्म के अध्ययन से वैज्ञानिकों को पता चला है कि वूली मैमथ क्या खाते थे, कैसे चलते थे, क्यों विलुप्त हो गए और आज के हाथियों से कैसे अलग थे.


वैज्ञानिकों के अनुसार, वूली मैमथ के विलुप्त होने के पीछे कई कारण हो सकते हैं. आखिरी आइस एज के बाद, जब धरती की जलवायु गर्म होने लगी, तो मैमथ के रहने के इलाके बदल गए, जिससे उनके खाने के स्रोत कम हो गए. वे बदले मौसम के अनुसार खुद को ढाल नहीं पाए.

इसके अलावा, इंसानों द्वारा शिकार करने की तकनीक में सुधार होने के बाद, उन्होंने भोजन के लिए वूली मैमथ का शिकार करना शुरू कर दिया. कई वूली मैमथ जलवायु परिवर्तन के कारण कुछ खास इलाकों तक सीमित रह गए, जिससे उनकी जेनेटिक विविधता कम हो गई.

इनब्रीडिंग, यानी एक ही जेनेटिक पूल के बीच प्रजनन, के कारण उनकी जेनेटिक विविधता और भी कम हो गई. इससे वे बीमारियों और जलवायु में बदलाव को झेल नहीं पाए और धीरे-धीरे विलुप्त हो गए. वूली मैमथ के विलुप्त होने के कारणों में जलवायु परिवर्तन, शिकार, और जेनेटिक विविधता की कमी शामिल हैं.

कोलोसल के को-फाउंडर बेन लैम के अनुसार, उनकी टीम ने प्राचीन मैमथ के जीनोम्स का अध्ययन किया है और एशियाई हाथियों के जीनोम से उनकी तुलना की है. दोनों के बीच के अंतर को समझने के बाद, अब एशियाई हाथियों के डीएनए में एडिटिंग कर वूली मैमथ का जीनोम तैयार करने की कोशिश चल रही है.

कोलोसल बायोसाइंसेस का दावा है कि वे 2028 के अंत तक मैमथ के पहले बच्चे को तैयार करने में सफल हो जाएंगे. वूली मैमथ को लैब में तैयार करना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि होगी. विज्ञान में तेजी से हो रही तरक्की विलुप्त हुई कई प्रजातियों को वापस धरती पर लाने में बड़ी भूमिका निभा सकती है.

जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए कोलोसल बायोसाइंसेस वूली मैमथ के अलावा तस्मानियन टाइगर को भी फिर से साकार करने की तैयारी में है, जिसे थाइलासिन या तस्मानियन वूल्फ भी कहा जाता है. यह जीव विलुप्त हो चुका है, लेकिन कोलोसल की टीम इसे फिर से जीवंत करने के लिए काम कर रही है.


तस्मानियन टाइगर एक विलुप्त जीव है जो कभी तस्मानिया द्वीप, ऑस्ट्रेलिया और न्यू गिनी में पाया जाता था. यह एक धारीदार कुत्ते जैसा दिखता था, जिसके बड़े जबड़े, पीले फर पर काली धारियां, छोटी और मोटी टांगें और एक लंबी बाल रहित पूंछ थी.

तस्मानियन टाइगर की उपस्थिति कुत्तों जैसी थी, लेकिन इसका कुत्तों से कोई निकट संबंध नहीं था. यह एक शर्मीला जानवर था जिसे आसानी से पकड़ा जा सकता था. कई बार घबराहट के कारण भी इसकी जान चली जाती थी.

तस्मानियन टाइगर के क़रीबी रिश्तेदार मांसाहारी मार्सुपियल्स थे, जैसे कि तस्मानियन डेविल्स और क्वोल्स. अन्य मार्सुपियल प्राणियों की तरह, तस्मानियन टाइगर भी अपने बच्चों को पेट से जुड़े पाउच में रखता था, जैसा कि कंगारू में देखा जाता है.

तस्मानियन टाइगर अब विलुप्त हो चुका है. आखिरी तस्मानियन टाइगर की मृत्यु 1936 में एक चिड़ियाघर में हुई थी.

कोलोसल बायोसाइंसेस तस्मानियन टाइगर को जेनेटिक इंजीनियरिंग के जरिए वापस लाने की तैयारी में है. यह एक ऐसी कोशिश है जो कई अन्य शोध संस्थान और बायोटेक कंपनियां भी कर रही हैं. एक अन्य जीव जिसे फिर से धरती पर लौटाने की तैयारी है, वह है डोडो. डोडो एक अजीब सा दिखने वाला पक्षी था जो हिंद महासागर के द्वीपीय देश मॉरीशस में पाया जाता था. 17वीं शताब्दी तक डोडो को देखा गया और उसके बाद यह विलुप्त हो गया. डोडो के विलुप्त होने के पीछे कई कारण थे. दुनिया के अन्य देशों से आए जहाजियों ने अपने साथ कई चूहों जैसी प्रजातियां लेकर मॉरीशस आए, जिन्होंने वहां का जैव संतुलन बिगाड़ दिया. इसके अलावा, बाहर से आए लोगों ने डोडो का काफी शिकार भी किया, क्योंकि डोडो इंसानों के डर से भागते नहीं थे, जिससे उनका शिकार आसान हो गया.

कोलोसल बायोसाइंसेस ने डेनमार्क में सुरक्षित रखे डोडो के अवशेषों से मिले डीएनए से उसका पूरा जीनोम सीक्वेंस तैयार कर लिया है. इसके बाद, इसे डोडो की सबसे करीब पक्षी प्रजातियों के जीनोम के साथ मिलाकर देखा जाएगा और यह तय किया जाएगा कि उनमें क्या बदलाव किए जाएं ताकि डोडो को तैयार किया जा सके.


कोलोसल कंपनी का दावा है कि उसकी तकनीक के जरिए वह विलुप्त होने के कगार पर पहुंचे कई जीवों की प्रजातियों को बचाने में सक्षम हो सकती है. जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से, वे जीन्स में ऐसे बदलाव करने में सक्षम हो सकती है जिससे ये जीव गर्म होती आबो हवा में बेहतर तरीके से रह पाएं. आबो हवा के गर्म होने के पीछे इंसान की भूमिका सबसे अधिक है. इंसान की तरक्की ने धरती पर जीवों की प्रजातियों पर संकट पैदा कर दिया है. औद्योगिक क्रांति के दौर में जंतुओं के विलुप्त होने की दर में वृद्धि हुई है, जो पचास साल पहले तक चालीस गुना अधिक हो चुकी है. कोलोसल कंपनी की तकनीक का उद्देश्य जीवों की प्रजातियों को बचाने के लिए जीन्स में बदलाव करना है, जिससे वे बदलते पर्यावरण में अनुकूल हो सकें. यह एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है जो जीवों की प्रजातियों को बचाने में मदद कर सकता है.

अनुमान के मुताबिक धरती पर हर 20 मिनट में किसी जीव-जंतु की एक प्रजाति विलुप्त हो रही है..///. कई वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि और साल 2050 आते-आते धरती की जेनेटिक विविधता की 30% पूरी तरह ख़त्म हो सकती है..///. इक्कीसवीं सदी का अंत होते होते धरती पर जीवों की क़रीब आधी प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी...   


प्रकृति के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ (IUCN) दुनिया भर में जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की प्रजातियों के संरक्षण के लिए काम करता है. IUCN की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, अब तक आकलन की गई प्रजातियों में से लगभग 1 लाख 69 हजार प्रजातियां रेड लिस्ट में हैं, यानी उन पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है. इनमें से लगभग 28% यानी 47 हजार प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर हैं.


 दुनिया में विलुप्ति की कगार पर खड़े दस जानवरों में से कुछ प्रमुख हैं:

  • 1. जावा राइनो: जावा गैंडे कभी पूरे दक्षिण-पूर्वी एशिया में पाए जाते थे, लेकिन शिकार और आवास विनाश के कारण अब केवल इंडोनेशिया के जावा में 75 ही बचे हैं.
  • 2. अमूर लैपर्ड: दुनिया में अब केवल लगभग 100 अमूर लैपर्ड बचे हैं. तेंदुए की यह उपप्रजाति 1996 से विलुप्ति की कगार पर है और अब केवल पूर्वी रूस और उत्तर-पूर्वी चीन के एक छोटे से क्षेत्र में पाई जाती है.
  • 3. सुंडा आइलैंड टाइगर: जिसे सुमात्रन टाइगर भी कहा जाता है, यह दुनिया में बाघ की सबसे छोटी उपप्रजाति है, जिसका वजन केवल 140 किलोग्राम तक होता है. अब केवल 600 सुंडा आइलैंड टाइगर बचे हैं, जो इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में पाए जाते हैं.
  • 4. माउंटेन गोरिल्ला: ईस्टर्न गोरिल्ला की एक उपप्रजाति, माउंटेन गोरिल्ला भी विलुप्ति की कगार पर है. ये अफ्रीका महाद्वीप के कांगो, रवांडा और यूगांडा के पहाड़ी इलाकों के जंगलों में पाए जाते हैं. अब दुनिया में केवल 1,000 माउंटेन गोरिल्ला बचे हैं.
  • 5. टापानुली ओरैंग उटैन: ओरैंग उटैन की यह प्रजाति इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप के जंगलों तक ही सीमित है. जंगलों के तेजी से कटने के कारण अब केवल 800 से भी कम टापानुली ओरैंग उटैन बचे हैं.
  • 6. यांगत्ज़े फिनलेस पॉरपॉइज़: यह जलीय स्तनपायी चीन की यांगत्ज़े नदी में रहता है. प्रदूषण, मछलियों के अंधाधुंध शिकार और पर्यावरण के बर्बाद होने से इसकी संख्या 2018 में केवल 1,000 रह गई थी.
  • 7. ब्लैक राइनो: काले गैंडे की प्रजाति विलुप्ति की कगार पर है. अंधाधुंध शिकार और जंगलों के कटने के कारण उनके प्राकृतिक आवास सिमटते जा रहे हैं. हालांकि संरक्षण प्रयासों के बाद उनकी संख्या में कुछ वृद्धि हुई है, लेकिन वे अभी भी गंभीर संकट में हैं.
  • 8. अफ्रीकी जंगली हाथी: पश्चिमी और मध्य अफ्रीका के जंगलों में पाए जाने वाले अफ्रीकी जंगली हाथी की प्रजाति गंभीर संकट में है. बीते 13 साल में उनकी आबादी में लगभग 86% की कमी आई है, जिसका मुख्य कारण शिकार और जंगल कटाई है.
  • 9. सुमात्रा का ओरैंग उटैन: यह प्रजाति इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप में पाई जाती है और IUCN द्वारा गंभीर संकट वाली प्रजाति में शामिल है. आज जंगलों में इनकी संख्या केवल 14,000 से भी कम है.
  • 10. हॉक्सबिल टर्टल: समुद्री कछुओं की यह प्रजाति अटलांटिक, हिंद और प्रशांत महासागर के उष्ण और उपोष्ण पानी में पाई जाती है. प्लास्टिक प्रदूषण, आबोहवा में बदलाव और समुद्र के बढ़ते जल स्तर के कारण उनकी प्रजाति में काफी कमी आई है.


धरती पर जीव-जंतुओं और वनस्पतियों का विलुप्त होना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जो धरती के जीवन का हिस्सा है. लेकिन अब यह प्रक्रिया कुदरती नहीं रह गई है, बल्कि मानवजनित कारणों से हो रही है. धरती पर बीते 50 करोड़ सालों में पांच बार बड़े पैमाने पर प्रजातियां विलुप्त हुई हैं, जिनमें से अधिकतर के पीछे प्राकृतिक कारण थे. लेकिन अब छठी महाविलुप्ति का दौर शुरू हो चुका है, जिसके पीछे मानवजनित कारण हैं.

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