आखिर इस सिनेमाघर में चलते-चलते क्यों धूंधली पड़ जाती थी शोले, रमेश शिप्पी का फिल्म ने बढ़ा दिया था खर्चा

शोले को रिलीज हुए पचास साल हो रहे हैं. फिल्म के डायरेक्टर रमेश सिप्पी ने उस दौर के किस्सों को याद करते हुए बताया कि किस तरह ऑडियंस थिएटर में ब्लर स्क्रीन देखकर भी बैठे रहते थे.

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थिएटर में शोले देखते हुए क्यों काली पड़ जाती थी स्क्रीन
नई दिल्ली:

बॉलीवुड की कल्ट क्लासिक फिल्म 'शोले' इस साल अपने 50 साल पूरे कर रही है. 15 अगस्त 1975 को रिलीज हुई इस फिल्म ने ऐसा इतिहास रचा कि आज भी लोग इसे बड़े शौक से देखते हैं. रिलीज के वक्त शायद किसी ने नहीं सोचा था कि ये फिल्म एक दिन मील का पत्थर बन जाएगी. अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, जया बच्चन, संजीव कुमार और गब्बर सिंह के आइकॉनिक रोल में अमजद खान, शोले में हर किरदार ने दर्शकों के दिल पर अपनी छाप छोड़ी. शोले के 40 साल पूरे होने पर डायरेक्टर रमेश सिप्पी ने एनडीटीवी से एक खास मुलाकात में फिल्म की रिलीज को लेकर कुछ दिलचस्प बातें शेयर की थीं.

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फ्लॉप से ब्लॉकबस्टर बनने तक

रमेश सिप्पी के मुताबिक, ये फिल्म शुरू में फ्लॉप कही जा रही थी. पहले कुछ दिनों में टिकट खिड़की पर खास भीड़ नहीं थी, मगर धीरे-धीरे दर्शकों का प्यार इतना बढ़ा कि फिल्म ब्लॉकबस्टर बन गई.

दर्शकों का जुनून

रमेश सिप्पी ने इंटरव्यू में शोले की रिलीज से जुड़ा एक मजेदार किस्सा भी सुनाया. उन्होंने बताया कि उस वक्त मुंबई के मिनर्वा थिएटर में फिल्म लगी थी. सिप्पी साहब एक दिन वहां पहुंचे तो देखा स्क्रीन बार-बार काली पड़ रही थी, कुछ भी नहीं दिख रहा था, बस आवाज सुनाई दे रही थी. हैरानी की बात ये थी कि दर्शक तब भी अपनी सीट से हिले नहीं, वे डायलॉग और साउंड ही सुनते रहे.

काली स्क्रीन का राज

बाद में पता चला कि प्रोजेक्टर में लगा कार्बन वक्त पर बदला नहीं जा रहा था, जिसकी वजह से स्क्रीन डार्क हो जाती थी. रमेश सिप्पी ने तुरंत फैसला किया कि वो रोज खुद थिएटर जाकर नया कार्बन देंगे, ताकि शो बिना रुकावट चले. ये खर्चा उनके लिए एक्स्ट्रा था, लेकिन फिल्म और दर्शकों के लिए उन्होंने इसे खुशी-खुशी किया.

जुनून से बनी दास्तां

शायद यही जुनून और मेहनत थी जिसने शोले को साधारण से असाधारण बना दिया. एक ऐसी फिल्म, जो 50 साल बाद भी उतनी ही दिलों में बसती है जितनी अपने पहले दिन पसंद किया गया था.

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