Bollywood Gold: रवि साहब उन संगीतकारों में से थे जो अपने गीतकारों को किसी बनी-बनाई धुन पर नहीं बांधते थे बल्कि उन्हें खुला आसमां दे दिया करते थे. पहले गीतकार गाना लिखकर लाते थे और उसके बाद रवि उनपर धुन बनाया करते थे. उनके गीतों का यही जादू देखने मिला था फिल्म काजल के गानों में. फिल्म काजल (Kaajal) के यूं तो सभी गाने बेहद खूबसूरत थे लेकिन ये ज़ुल्फ अगर खुल्के बिखर जाए तो अच्छा गाने की बात ही कुछ और थी. इस गाने से रफी साहब की आवाज़ रोमांस को जीवंत कर देती है. आज जानिए साहिर लुधियानवी (Sahir Ludhiyanvi) से इस गीत को लेते हुए क्यों उलझन में थे रवि साहब और आखिर कैसे बनकर तैयार हुआ था फिल्म काजल का यह गाना.
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फिल्म काजल साल 1965 में बड़े परदे पर आई थी. इस फिल्म के डायरेक्टर थे राम महेश्वरी, फिल्म में मीना कुमारी (Meena Kumari), धर्मेंद्र, पद्मिनी और राज कुमार मुख्य भूमिकाओं में थे. संगीतकार थे रवि साहब और गाने निकले थे महान शायर साहिर लुधियानवी की कलम से. वहीं, फिल्म के सभी गानों की बात करें तो इन्हें अपनी आवाज से सजाया था मोहम्मद रफी, आशा भोसले और महेंद्र कपूर ने. अब बात करते हैं फिल्म के यह ज़ुल्फ अगर खुल्के गाने की.
यह ज़ुल्फ अगर खुल्के बिखर जाए तो अच्छा गीत साहिर लुधियानवी की गजल है जिसे उन्होंने फिल्म काजल के लिए लिखा था. अब जब इस गीत को लिखकर वे संगीकार रवि (Musician Ravi) के पास लेकर गए तो रवि साहब ने पूछा कि साहिर साहब यह गाना अधूरा तो नहीं है, मतलब इसमें कोई वर्ड मिसिंग तो नहीं है क्योंकि मैने फिल्म महल का एक गाना सुना था 'कि घबरा के जो हम सिर को टकराएं तो अच्छा हो', ऐसा तो नहीं है कि यह गाना, यह ज़ुल्फ अगर खुलकर बिखर जाए तो अच्छा हो होना चाहिए. इसपर साहिर साहब ने कहा नहीं-नहीं, हो लगा दिया तो यह गाना बिल्कुल उस गाने की कॉपी लगने लगेगा. तो अब रवि साहब के लिए चैलेंजिंग यह था कि अच्छा पर किस तरह धुन खत्म की जाए. इस चैलेंज को एक्सेप्ट करते हुए रवि साहब ने इस गाने की धुन तैयार की थी.
जब यह गाना मोहम्मद रफी के पास गया तो उन्हें रवि साहब ने बताया कि दो बार अच्छा किस स्टाइल में कहना है. इसपर रफी साहब ने भी कहा कि एक अच्छा मैं अपने अंदाज में गाउंगा. इस तरह तीन अलग-अलग स्टाइल में 'अच्छा' शब्द गाया गया था, प्रजेंट किया गया था और फिर बनकर तैयार हुआ था ये ज़ुल्फ अगर खुल्के बिखर जाए तो अच्छा गाना.