निधि कुलपति का नोट : कश्मीर - एक संवाद...

निधि कुलपति का नोट : कश्मीर - एक संवाद...

नई दिल्ली:

2014 के अंत में हुए विधानसभा चुनावों के बाद पिछले दिनों फिर मौका मिला श्रीनगर जाने का... एक संस्था ने मीडिया समिट आयोजित किया, जहां जम्मू-कश्मीर के स्थानीय और बाहर से बुलाए गए पत्रकारों के बीच संवाद हो... एक कोशिश थी कि विचारों और ख्यालों का आदान-प्रदान हो... वरिष्ठ पत्रकार लेखक कुलदीप नैयर मुख्य अतिथि थे... सईद नकवी, शाहिद सिद्दीकी, प्रेस क्लब के अध्यक्ष राहुल जलाली, मधु किश्वर, सिद्धार्थ वरदराजन - करीब 10 पत्रकार राज्य के बाहर से आमंत्रित थे... जब अपने अनुभवों या सोच को सामने रखने का पहला दौर शुरू हुआ, तो अंदाजा लग गया कि शब्दों से आतिशबाजी क्या होती है...

मुखर कट्टर विचार जब तेज उच्चारण के साथ बयां किए जाते हैं तो असर दिखने लगता है... फिर परिपक्व लोगों का दायित्व बन जाता है कि शब्दों के मरहम की ज़रूरत हो या वास्तविकता के बिन्दुओं को सामने रख समझाया जाए... डल झील से लगे शेर-ए-कश्मीर इंटरनेशनल कन्वेंशन सेन्टर में श्रोताओ में ज्यादातर युवा मौजूद थे... लड़के-लड़कियां, जो मीडिया कॉलेजों में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे थे... मैं वक्ताओं की फेहरिस्त में बैठ सोच रही थी, क्या चल रहा होगा इन बच्चों के मन में...

देश के इस हिस्से से मेरा रिश्ता कुछ पुराना-सा है... 1979 में पहली बार जम्मू-कश्मीर के दौरे पर गई थी... तमाम पर्यटन स्थलों के अनुभव अपने साथ समेटकर ले आई थी... खास था चिकनी मिट्टी से बना एक टी-सेट, जिस पर ग्लास पेंट किया गया था... कई सालों तक उसे संभालकर इस्तेमाल किया था... अब बाज़ारों में ढूंढती फिरती हूं, लेकिन दिखा नहीं...

फिर हाल ही के कुछ सालों में छुट्टियों के लिए बार-बार कश्मीर जाती रही... श्रीनगर से लेह का सफर रोड से तय कर... कारगिल की पहाड़ियां... जोजिला पास... मोनैस्ट्रीज़... दुनिया की सबसे ऊंची मोटरेबल रोड खारदोग्ला पास तक पहुंचने का अनुभव... इस राज्य की विरासत का फैलाव ज़हन में समाता रहा...

फिर पिछले साल के विधानसभा चुनावों के दौरान आम जनता के बीच घुलने-मिलने का मौका मिला... वही विकास की सोच सुनाई देती रही... यूपी-बिहार का चुनावी दौरा मन में ताजा था, तो यहां भी लोगों की मूल मांग एक जैसी थी... हालांकि बाढ़ के बाद परेशानियां बढ़ी हुई थीं... महबूबा मुफ्ती हों या उमर अब्दुल्ला या मीरवाइज़ उमर फारूक, सभी नेता अपने-अपने सियासी रंग में दिखे... लेकिन शायद खास था पुराने श्रीनगर या अब डाउनटाउन कहा जाने वाला इलाका, जहां मैंने युवाओं से मुलाकात की... वही इलाका, जो पत्थरबाजी के लिए जाना जाता रहा है... इस इलाके में कैमरा टीम के साथ कार्यक्रम रिकॉर्ड करना आसान नहीं होता, लेकिन साथ मिल ही जाता है...

युवा जब मिले तो उन्होंने कहा कि हम तो पत्थरबाजों पर तैयारी के साथ आए हैं... हमें कहा गया कि आप उसी पर बात करेंगी... है न...? मैंने कहा, नहीं, मैं तो युवाओं से मिलने आई हूं... उनकी सोच को समझना चाहती हूं... उनको सुन ही रही थी कि मुझे एक और गुज़ारिश करनी पड़ी कि हिन्दी या उर्दू में बोलें, क्योंकि ये युवा अंग्रेज़ी में जवाब रटकर आए थे... ये लड़के-लड़कियां अंग्रेजी में बोलकर कुछ संदेश देना चाह रहे थे... बहरहाल कार्यक्रम के बढ़ने पर जो भाव समझ में आया, वह था भेदभाव का, नाराज़गी का...

...मैंने समझाने की कोशिश कि जब यूपी-बिहार के लोग मुंबई जाते हैं तो यही होता है... उत्तर-पूर्व के लोगों के साथ दिल्ली में यही होता है... उत्तर से लोग जब मद्रास जाते हैं तो ऐसा ही महसूस करते हैं... हम समाज में असहनशील होते जा रहे हैं... अपने पड़ोसी तक से तो बनाकर नहीं रख पाते... लौटते समय लगा कि शायद घाटी में यह जरूरत है कि पहले की पीढ़ियां अपनी भावनाओं का बोझ युवाओं पर न डालें... जीने दें युवाओं को उस हवा में, जहां वे अपना भविष्य संवार सकें... पढ़ाई और रोजगार के बेहतरीन अवसर मिलें... फेहरिस्त लंबी है... वही फेहरिस्त, जो देश के अन्य कई राज्यों से अलग नहीं है... जरूरत है बार-बार संवाद की...

...और इसी संवाद की ज़रूरत मीडिया समिट में भी पड़ी... कुछ आवाज़ों में वही असहनशीलता छलकती रही... उन आवाज़ों ने भारत विरोधी बयानबाजी कर दबाव बनाना चाहा, तो कुलदीप नैयर ने (पाकिस्तान के प्रधानमंत्री) नवाज़ शरीफ से अपनी मुलाकात का ज़िक्र कर रेखा खींच दी कि नवाज़ शरीफ ने कहा था कि न आप हमें कश्मीर दे सकते हैं और न हम आपसे कशमीर ले सकते हैं...

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उनकी बात सबको सुननी पड़ी... बाद में कॉलेजों के छात्र-छात्राओं ने मुझे घेर लिया... मैंने पूछा, आप लोगों ने कोई सवाल क्यों नहीं पूछा, तो कहने लगे कि हम घबरा गए थे... ऐसे लोगों के बीच हम हिम्मत नहीं जुटा पाए पत्रकारिता में अपने भविष्य पर सवाल करने की... तो उन छात्रों के वास्तविक सवाल, जो रोजमर्रा के जीवन से जुड़े हैं, पीछे छूट गए... लेकिन यह अनुभव यह जता गया कि संवाद की ज़रूरत है आम नागरिकों से... उन लोगों से, जो नागरिक हैं, silent majority हैं...