अगर किसी की तमाम तक़लीफों में सबसे बड़ी यही तकलीफ हो कि किसी ने उनकी बात नहीं की तो उस चुप्पी पर बात होनी चाहिए. इंसाफ़ का इंतज़ार लंबा हो ही गया है और शायद आगे भी हो लेकिन चुप्पी उनके भीतर चुप रही है. वो हर दिन पहले से ज्यादा चुभने लगती है. दिल्ली के कनॉट प्लेस में एक सिनेमा घर है. पीवीआर प्लाज़ा. रविवार दोपहर मैं यहां था. एक ऐसी फिल्म का छोटा सा टुकड़ा देखने के लिए जहां आने वाले बहुत से लोग अपनी अपनी पूरी फिल्म लेकर आए थे. इसलिए अगर निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा अपनी फिल्म शिकारा पूरी की पूरी दिखा देते तब भी आप वहां मौजूद बहुतों के जीवन की सारी फिल्म आप नहीं देख पाते. लेकिन 19 जनवरी की दोपहर वैसी दोपहर नहीं थी जिस तरह से यह दिन इन दिनों ट्विटर पर शुरू होता है. जम्मू के जगती कैंप से बसों से लाए गए कश्मीरी पंडितों के साथ फिल्म देखने का तजुर्बा मेरे लिए किसी भी फिल्मी तजुर्बे से बड़ा था.