कांट्रेक्ट फार्मिग दवाई नहीं है बल्कि बीमारी है. मध्यप्रदेश के पिपरिया के किसानों का अनुभव तो यही कहता है. अच्छा इसकी चर्चा इसलिए कि कुछ दिन पहले एसडीएम ने एक राइस कंपनी को दंडित किया और किसान के हक में फैसला दे दिया. बस ढिंढोरा पीटा जाने लगा कि कैसे प्रशासन ने कंपनी के खिलाफ कार्रवाई करते हुए किसानों के हित में फैसला लिया है. यह कहानी सही समय पर लाई गई ताकि कांट्रेक्ट का विरोध कर रहे किसानों को ग़लत साबित किया जा सके. हमारे संवाददाता अनुराग द्वारी को भी लगा कि ये तो कमाल ही है कि फार्चून राइस लिमिटेड ने अनुबंध के बाद धान नहीं खरीदा तो एसडीएम ने किसान के हक में फैसला दे दिया. वैसे अनुराग को ऐसा नहीं लगा, बल्कि शक हो गया. अनुराग पहुंच गए पिपरिया. रास्ते भर "किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) अनुबंध मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा अधिनियम 2020" (कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग अधिनियम) के प्रावधान पढ़ते रहे जिसके अनुसार एसडीएम साहब ने फैसला दिया था. अनुराग की मुलाकात पुष्पराज सिंह से ही हो गई जिनके फैसले का ढिंढोरा मंत्री से लेकर गोदी मीडिया के पत्रकार पीट रहे थे. वैसे भौंखेड़ी कलां गांव के पुष्पराज सिंह बड़े किसान हैं और कांग्रेस के पदाधिकारी रहे हैं. पुष्पराज कहते हैं कि वे कभी भी किसी किसान को कांट्रेक्ट की सलाह नहीं देंगे. अनुराग ने पिपरिया के कुछ और किसानों से मुलाकात की जिन्होंने धान को लेकर फार्चून कंपनी से कांट्रेक्ट किया था. ब्रजेश पटेल, घनश्याम पटेल. अंग्रेज़ी में रिफार्म के नाम पर बिल का वाहवाही करने वाले पत्रकारों और जानकारों के लेख में ज़मीन पर किसान क्या भुगत रहा है इसकी झलक नहीं मिलेगी.