दुनिया भर में सरकारी पाबंदियों का दायरा बदलता भी जा रहा है और उनका घेरा कसता भी जा रहा है. धरना-प्रदर्शन या आंदोलन करना मुश्किल होता जा रहा है. आवाज़ दबाना आसान हो गया है. भले ही असहमति के स्वर की संख्या लाखों में हो मगर अब यह संभव है और हो भी रहा है कि पहले की तुलना में इन्हें आसानी से दबा दिया जाता है, खासकर तब जब कहा जाता है कि सूचना के बहुत सारे माध्यम हो गए हैं. इंटरनेट और सोशल मीडिया हो गया है. लेकिन इसी दौर में सरकार अचानक इंटरनेट सेवा ठप्प कर देती है. स्मार्टफोन बेकार हो जाते हैं और आप एक झटके में पब्लिक बूथ से पहले के ज़माने में यानी आज से पचास साल पहले के दौर में चले जाते हैं. दुनिया भर में नज़र घुमाइये, सेना और पुलिस की क्रूरता पहले से कहीं ज़्यादा सख़्त और दुरुस्त है. इस पर बहस होनी चाहिए कि टेक्नॉलजी ने हमारी लोकतांत्रिकता का विस्तार किया है या उनका कुचल दिया जाना आसान कर दिया है.