90 के दशक के आखिरी हिस्से से अचानक भारत की राजनीति को बिजली सड़क पानी के मुद्दे से पहचाना जाने लगा. इससे बिजली और सड़क का कुछ भला तो हुआ लेकिन पानी पीछे छूट गया. शिक्षा और स्वास्थ्य का तो नंबर ही नहीं आया. दिल्ली विधानसभा का चुनाव शायद पहला चुनाव है जिसमें शिक्षा का सवाल केंद्र में आते आते रह गया. बेशक दिल्ली का चुनाव स्कूल से शुरू होता है लेकिन शाहीन बाग को पाकिस्तान, गद्दार और आतंकवाद से जोड़ने की सियासी आंधी के कारण पिछड़ता जा रहा है. हिन्दी प्रदेशों के लिए जिनमें से दिल्ली शिक्षा का आखिरी पड़ाव है, यह मुद्दा नई राजनीति को जन्म दे सकता है या दे सकता था. बिहार यूपी और अन्य हिन्दी प्रदेशों से शिक्षा के कारण भी लाखों लोगों का पलायन हुआ है. लोगों ने खराब स्कूलों और कॉलेज की कीमत इतनी चुकाई है कि वे बच्चों को पढ़ाने के लिए शहर बदलने लगे और ट्यूशन और कोचिंग का खर्चा उनकी ज़िंदगी की जमा पूंजी निगल गया. स्कूल अगर राजनीति के केंद्र में आता है तो यह मसला दिल्ली सहित हिन्दी प्रदेशों की राजनीति बदल देगा.