5 अगस्त को अयोध्या में भूमिपूजन के बाद एलान हुआ कि परम वैभव संपन्न भारत के निर्माण का शुभारंभ हुआ है. एक महीना भी नहीं बीता कि 5 सितंबर को शाम 5 बजे नौजवान थाली बजाने लगते हैं. उन्हीं जगहों पर उसी तरह से थाली बजाने लगते हैं जैसा उन्हें 22 मार्च के दिन शाम 5 बजे करने को कहा गया था. यहां यह महत्वपूर्ण है कि इन नौजवानों में से अधिकतर या किसी को थाली बजाने का वक्त पांच महीने बाद भी शाम 5 बजे याद रहा होगा. 5 और 5 की यह तुकबंदी इसलिए नहीं मिला रहा कि हेडलाइन चमकदार हो जाए. बल्कि समझने के लिए थाली बजाने का तरीका राजकीय था यानी प्रधानमंत्री ने जनता से आह्वान किया. जब जनता ने इसे विरोध के रूप में इस्तमाल किया तब क्या वह सरकारी तरीके से अलग रूप दे पाई या उसी के जैसी हो गई. एक ही थाली है. जिस जनता से सरकार बजवाती है वही जनता सरकार को सुनाने के लिए बजाती है. सरकार के पास बोलने के कई मुंह हैं लेकिन सुनने के लिए कोई कान नहीं है. थाली बजाइये या शंख. जनता सरकार के तरीकों को अपना कर थोड़े समय के लिए स्मार्ट तो लग सकती है मगर लंबे समय में सरकार उससे स्मार्ट निकल जाती है.