चंपारण के सौ साल की कमाई यही है कि आज का किसान फिर से डरा हुआ है. भयभीत है और बैंक के लोन के आगे कमज़ोर हो चुका है. किसानों की आत्महत्या की ख़बरें अब न तो किसी संपादक को विचलित करती हैं न अब कोई पीर मोहम्मद मुनिश है जो नौकरी ख़तरे में डालकर कानपुर से निकलने वाले प्रताप अख़बार के लिए चंपारण में किसानों के शोषण की कहानी भेज रहा था. न ही कोई गणेश शंकर विद्यार्थी है जो चंपारण की कहानी छाप कर, वहां के किसानों के लिए पर्चा छापकर कहानी मंगाने का जोखिम उठा सकता है. आज की पत्रकारिता चंपारण सत्याग्रह पर कैसे बात करेगी. क्या वो कर सकती है. आज के किसानों को गांधी का इंतज़ार नहीं है. उन्हें फांसी का इंतज़ार रहता है.