World Emoji day: क्या एक दिन शब्दों को बेदखल कर देंगे इमोजी?

क्या धीरे-धीरे इमोज़ी ही हमारी भाषा बनती चली जाएगी? उसका अपना व्याकरण स्थिर हो जाएगा? क्या हम अक्षरों और शब्दों की दुनिया को पीछे छोड़ मुद्राओं और तस्वीरों से अपनी नई भाषा बनाएंगे?अभी यह बहुत दूर का सवाल है, लेकिन ताज़ा सच्चाई यह है कि अपने डिजिटल संवाद में हम लगातार इमोजी-निर्भर होते जा रहे हैं.

करीब पंद्रह-बीस बरस पहले एक अनजान शब्द ने हमारी दुनिया में घुसपैठ की- इमोजी. भावनाओं को व्यक्त करने वाले ये चिह्न जब पहली बार सामने आए तो हमारी तरह के कई लोग कुछ हैरान हुए. न उन्हें 'स्माइली' समझ में आती थी, न प्रणाम की मुद्रा में जुड़े हुए हाथों का संदेश प्रभावित करता था. पता चला कि ये इमॉटिकॉन्स हैं- इमोशन्स को चिह्नों से बताने वाले नए माध्यम. धीरे-धीरे ये चिह्न बढ़ने लगे, उदासी के, गुस्से के, अफ़सोस के- और हम इन्हें पहचानने भी लगे. फिर बात यहीं तक नहीं रुकी. धीरे-धीरे हमें इनका अभ्यास होने लगा. अब इमोजी के बिना हमें अपनी भाषा भी अधूरी लगने लगी. अब एक पूरा वाक्य लिखकर हमारा काम नहीं चलता, उसके साथ हम कोई न कोई इमोजी ज़रूर लगाना चाहते हैं.

Latest and Breaking News on NDTV

तो ऐसा लग रहा है, जैसे इमोज़ी धीरे-धीरे भाषा की इकाई बनते जा रहे हैं. बेशक, वह अभी दुनिया की किसी भी भाषा के व्याकरण में शामिल नहीं हैं, लेकिन शायद ज़्यादातर भाषाएं लिखने वाले लोग अब कम से कम अनौपचारिक लिखित-संवाद में इमोजी का भरपूर इस्तेमाल करने लगे हैं. किसी को जन्मदिन की बधाई देनी हो, किसी के दुख में खड़ा होना हो, किसी से नाराज़गी दिखानी हो, किसी से प्रेम जताना हो, हर भावना के लिए एक इमोजी है. धीरे-धीरे शब्दों का इस्तेमाल घट रहा है, इमोजी का इस्तेमाल बढ़ रहा है.

Advertisement - Scroll to continue

यहां से एक नया सवाल पैदा होता है- क्या धीरे-धीरे इमोज़ी ही हमारी भाषा बनती चली जाएगी? उसका अपना व्याकरण स्थिर हो जाएगा? क्या हम अक्षरों और शब्दों की दुनिया को पीछे छोड़ मुद्राओं और तस्वीरों से अपनी नई भाषा बनाएंगे?

अभी यह बहुत दूर का सवाल है, लेकिन ताज़ा सच्चाई यह है कि अपने डिजिटल संवाद में हम लगातार इमोजी-निर्भर होते जा रहे हैं. निश्चय ही इसका एक सकारात्मक पक्ष यह है कि जो लोग ख़ुद को शब्दों में बहुत क़रीने से व्यक्त नहीं कर पाते, वे इमोज़ी की मदद से अपनी मुस्कुराहट, अपना गुस्सा या अपना प्यार जता पा रहे हैं. फिर जब दुनिया ग्लोबल हुई जा रही है तो अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले लोगों के लिए आपस में संवाद का एक ज़रिया इमोजी के रूप में मिल जा रहा है. यही नहीं, इस भागते-दौड़ते समय में जब संक्षेप में अपनी भावनाएं किसी तक पहुंचाने का माध्यम मिल जाए तो हर्ज़ क्या है?

Latest and Breaking News on NDTV

लेकिन क्या इमोजी पूरी भाषा का विकल्प बन सकते हैं? उनसे हमारी संवेदनाएं व्यक्त हो रही हैं या सीमित हो रही हैं? इमोजी हमें हमारी भावनाएं व्यक्त करना सिखा रहे हैं या कारोबारी ढंग से बस संवेदनाओं को सूचनाओं में बदलकर संप्रेषित कर दे रहे हैं? या यह इमोजी की सीमा है या हमारी? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम ख़ुद ही कुछ महसूस करना भूल चुके हैं और इमोजी के ज़रिए बस एक संदेश भेजकर संतुष्ट हो जा रहे हैं? सोशल मीडिया पर हज़ारों दोस्तों की फेहरिस्त के बीच यह अनुभव आम है कि हम किसी के बच्चे के जन्मदिन पर उसे बधाई देते हैं और अगले ही क्षण किसी की मां की मौत पर शोक जताते हैं. सच तो यह है कि हम न ख़ुश हो पा रहे हैं, न दुखी हो पा रहे- खुशी या दुख अगर हैं तो वे कहीं हमारी व्यस्तता के इतने भीतर दबे हैं कि उन्हें बाहर लाना हमारे लिए संभव नहीं हो पा रहा है. इसीलिए हम इमोजी का सहारा लेते हैं और संतुष्ट हो जाते हैं कि हम किसी के साथ उसकी ख़ुशी या गमी में शरीक हो गए.

Latest and Breaking News on NDTV

यहां एक और ख़्याल आ रहा है जिसका वास्ता हमारे भाषिक संस्कार से है. यह भी आम अनुभव है कि धीरे-धीरे भाषा हमसे दूर होती जा रही है. हम जिस दृश्य बहुल दुनिया में हैं, जिस शोर-संकुल ज़माने में हैं, वहां शब्द या तो पीछे छूट रहे हैं या फिर अपने मानी खो रहे हैं. दुख से अब दुख का अनुभव नहीं होता, खुशी से खुशी महसूस नहीं होती. विडंबना यह है कि इससे आगे कुछ गहराई में चीज़ों को देखने, महसूस करने का हमारा अभ्यास लगातार कमज़ोर पड़ रहा है. पहले भाषा इस काम में हमारी मददगार होती थी. जो अव्यक्त है, जो कहीं भीतर बहुत गहरे दबा है, जिसे ठीक से रचा-लिखा जाना है, उसकी छटपटाहट में हम सही शब्द खोजते, सही वाक्य लिखने की कोशिश करते, चुप्पी को भी भाषा में शामिल करते और अंततः वह कहने की कोशिश करते जो हमारे बहुत भीतर दबा है. इस क्रम में कुछ हम भी बनते थे, कुछ हमारी भाषा भी बनती थी. लेकिन हमारा बनना भी छूट गया, हमारी भाषा का बनना भी छूट गया. अब हम मनुष्य से ज़्यादा मशीन हैं, जो भाषा से ज़्यादा इमोजी से काम चला रहे हैं.

Latest and Breaking News on NDTV

अभी इसमें कुछ अतिशयोक्ति लग सकती है. लेकिन इमोजी या इमॉटिकॉन्स का विकास देखें तो समझ में आएगा कि दुनिया के महाकाय निगमों द्वारा एक नई भाषा किस तेजी से रची जा रही है, जिसकी कोई वर्णमाला नहीं है. हर साल यूनीकोड कंसोर्टियम  नई-नई इमोजी को मान्यता देता है. इमोजी में अधिकतम अभिव्यक्तियों को संभव करने और उसे हर तरह के मोबाइल और कंप्यूटर के अनुकूल बनाने की प्रक्रिया बहुत तेज़ी से जारी है. जो शुरुआत स्माइली और अन्य भावनाओं के उपयुक्त इमोजी गढ़ने से हुई थी, उसमें फूल-पत्ते, जानवर, चेहरे-चश्मे- सब शामिल होते चले गए हैं. कई साल पहले बाइबिल का इमोजी केंद्रित संग्रह आ चुका है. उन दिनों यूरोप में इस संस्करण को लेकर बहस भी चली थी. 'बाइबिल इमोजी- स्क्रिप्चर्स फॉर मिलेनियल' नाम की यह बाइबिल उन दिनों 2.99 डॉलर में ऐप्पल के आई बुक पर मिल रही थी.  

तो यहां शब्दों की भाषा से चिह्नों की भाषा के सफ़र को देखें. और कल्पना करें कि लिखित भाषा के उदय से पहले हमारी अभिव्यक्ति क्या रही होगी और सदियों बाद जब प्रिंटिंग प्रेस ने लिखित भाषा और किताबों का व्यापक जनतांत्रिकीकरण कर दिया तो हमारी अभिव्यक्तियां किस तरह बदली होंगी. वाचिक शैलियों और परंपराओं का क्या हुआ होगा और लिखित भाषा की नई विधाएं कैसे उभरी होंगी. 

Latest and Breaking News on NDTV

अभिव्यक्ति में शब्दों के आधिपत्य को सबसे ज़्यादा सिनेमा ने तोड़ा. संगीत, चित्रकला या स्थापत्य भी अभिव्यक्ति के माध्यम रहे, लेकिन उनका वास्ता ज़्यादातर अमूर्त अनुभवों से रहा और उन्हें व्यक्त करने के लिए भी भाषा का ही इस्तेमाल होता रहा. सिनेमा ने पहली बार दृश्यों को शब्दों के बराबर ला खड़ा किया. सिनेमा के साथ-साथ जो नए दृश्य-माध्यम सामने आए, उन्होंने भी शब्दों को नई अभिव्यक्तियां संभव करने की चुनौती दी. लेकिन इन तमाम माध्यमों ने शब्द को विस्थापित नहीं किया. शब्द भी चित्र और दृश्य को गढ़ने की कोशिश में कुछ नए और सुंदर हुए.

लेकिन इमोजी तो बिल्कुल शब्दों को विस्थापित कर रही है. ख़तरा ये है कि ये ऐसी संक्षिप्त भाषा विकसित न कर दे, जिसके वश में हम बहुत सारी गहरी संवेदनाओं से नाता तोड़ बैठें. हम संक्षिप्त अनुभवों वाले मनुष्य रह जाएं, जो एआई यानी कृत्रिम मेधा के हाथों का कुछ और खिलौना बनते चले जाएं. अभी ही हमने अपनी स्मृति लगभग खो दी है और इसे गूगल के हवाले कर दिया है. क्या कल हम अपनी अनुभव संपदा भी खो देंगे? यह डराने वाला सवाल है, लेकिन इस सवाल से टकराए बिना न हम शब्दों को बचा पाएंगे और न इमोजी को अधिक संवेदन-सक्षम बना पाएंगे. फिलहाल इक़बाल से माफ़ी मांगते हुए कह सकते हैं कि शब्दों के आगे जहां और भी हैं. अभी अनुभव के इम्तिहां और भी हैं.