महागठबंधन: राहुल-तेजस्वी की जोड़ी क्या कर पाएगी कमाल

बिहार में राजद, कांग्रेस, वामदलों और कुछ छोटे दलों का महागठबंधन एक बार फिर चुनावी समर में उतरेगा. क्या हैं इस गठबंधन के जीत की संभावनाएं बता रहे हैं अजीत कुमार झा.

पटना की गर्म और घुमावदार गलियां, जहां के पुराने सिनेमाघरों पर अब भी अमिताभ और धर्मेंद्र (शोले के जय और वीरू) के नाम चमकते हैं. चाय की दुकानें रसोई से ज्यादा संसद लगती हैं, वहां तेजस्वी यादव एक आधुनिक छवि बनाते हैं. वह युवा हैं, उनके पिता लालू प्रसाद यादव की भारी आवाज और देहाती अंदाज से अलग, लेकिन फिर भी उनकी राजनीतिक विरासत के स्पष्ट वारिस हैं, बिहार की मिट्टी और बोली में पला एक राजवंश. उनके ही इर्द-गिर्द बना है, महागठबंधन, पार्टियों का वो गठजोड़ जो मानो बारिश के मौसम में कमजोर तंबू सा लगता है. वह तेजस्वी के युवा जोश पर टिका है, जैसे कोई थका-हारा बुजुर्ग अपनी लाठी पर भरोसा करता है.

बिहार की राजनीति के जय-वीरू

लोकसभा में नेता विपक्ष राहुल गांधी अक्सर तेजस्वी यादव के साथ नजर आते हैं. दिल्ली के सत्ता के गलियारों में राहुल गांधी को 'राजकुमार' कहा जाता था, लेकिन पिछले कुछ सालों में उन्होंने भारत को पैदल नापा है, किसानों के घरों में रुके और विशेषाधिकार की जगह धैर्य की भाषा अपनाई. बिहार में राहुल बाहरी नहीं, बल्कि तेजस्वी के दोस्त के रूप में दिखते हैं, एक ऐसे राज्य में जहां राजनीति में दोस्ती दुर्लभ है और गठबंधन संदेह के साथ बनते हैं. दोनों जय और वीरू जैसे लगते हैं, मोटरसाइकिल पर सवार, 'ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे...' गाते हुए, नवंबर 2025 में बिहार की राजनीति बदलने को तैयार. यह दोस्ती पड़ोसी उत्तर प्रदेश की 2017 विधानसभा और 2024 लोकसभा चुनाव की याद दिलाती है, जहां नारा था 'यूपी को ये साथ पसंद है' अब सवाल यह है कि 'क्या बिहार को ये साथ पसंद है?'

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लालू यादव बिहार की मिट्टी से जुड़े हुए थे. वहीं तेजस्वी अब बिहार के भविष्य का प्रतीक बनना चाहते हैं. इसलिए वह तंज कम करते हैं और योजनाओं पर अधिक बात करते हैं, जातिगत गणित की कम और रोजगार की अधिक चर्चा करते हैं. इसके बाद भी दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं. राहुल गांधी वह देते हैं जो तेजस्वी अभी नहीं ला सकते हैं, राष्ट्रीय मंच और नेहरू परिवार से दिल्ली की सत्ता तक का इतिहास. दोनों एक पारिवारिक शादी में चचेरे भाइयों की तरह हैं, जो एक-दूसरे का साथ पसंद करते हैं. दोनों अपनी विरासत और जिम्मेदारियों को समझते हैं. महागठबंधन एक नाजुक नाव की तरह है. इसमें नीतीश कुमार की चुप्पी, कांग्रेस के पुराने झंडे, राजद का मंडल युग का गौरव, और वामपंथ का अटल विश्वास शामिल है. लेकिन इसके केंद्र में तेजस्वी और राहुल हैं, प्रतिद्वंद्वियों के बीच दोस्त, जो उस पीढ़ी की भाषा बोलते हैं जो आपातकाल नहीं, इंटरनेट के साथ बड़ी हुई है बल्कि दिल्ली, दुबई, दोहा या दरभंगा के कोचिंग सेंटरों की ओर पलायन के साथ, जो तकनीकी विशेषज्ञ पैदा कर रही है.

वोटर अधिकार यात्रा के दौरान बुलेट की सवारी करते तेजस्वी यादल और राहुल गांधी.

वोटर अधिकार यात्रा के दौरान बुलेट की सवारी करते तेजस्वी यादल और राहुल गांधी.

तेजस्वी का नौकरियों का वादा

तेजस्वी जब पटना के मंच से 10 लाख नौकरियों का वादा करते हैं, राहुल सहमति में सिर हिलाते हैं, जैसे उन्हें भारत जोड़ो यात्रा में साथ चलने वाले वो युवा याद आते हैं, जिनके पास डिग्री तो है, लेकिन नौकरी नहीं है. जब राहुल भारत की बहुलता को बचाने की बात करते हैं, तेजस्वी उसका आधार देते हैं. 

भोजपुरी बोलने वाले बिहारी इलाके में जहां बहुलता कोई सिद्धांत नहीं, बल्कि जीवन जीने का तरीका है. उनका रिश्ता बराबरी का नहीं है, न ही एक-दूसरे के विपरीत. यह समान कमजोरियों वाला साथ है. दोनों को ऐसे वारिस के रूप में खारिज किया जाता है, जिन्होंने अपनी जगह मेहनत से नहीं कमाई है. दोनों को अनुभवहीन कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता है, दोनों को उस देश में युवा होने की वजह से ताने सुनने पड़ते हैं, जो सफेद बालों की इज्जत करता है. इसके बाद भी, इन्हीं बोझों की वजह से वे एक-दूसरे का सहारा बन सकते हैं. राहुल, जिन्होंने अपनी दादी, पिता और अपनी पार्टी का गौरव खोया, तेजस्वी में उस लड़के का उत्साह पाते हैं, जो मानता है कि कल को बदला जा सकता है. तेजस्वी, जिन्हें न सिर्फ पार्टी, बल्कि अपने पिता के मुकदमे और विवाद विरासत में मिले हैं, राहुल में यह भरोसा पाते हैं कि वंशवाद का मजाक सहकर भी खुद को नया रूप दिया जा सकता है और खुद को प्रासंगिक बनाए रखा जा सकता है.

आरजेडी नेता तेजस्वी यादव नौकरियों और रोजगार को मुद्दा बना रहे हैं.

आरजेडी नेता तेजस्वी यादव नौकरियों और रोजगार को मुद्दा बना रहे हैं.

महागठबंधन का ताना-बाना

बिहार का महागठबंधन केवल एक गठबंधन भर नहीं है, यह एक मंच है, जहां दो दोस्तों की दोस्ती निखर रही है. यह साथ शायद लड़खड़ा जाए, शायद टूट जाए, लेकिन यह मतदाताओं से धीरे से कह रही है कि राजनीति हमेशा केवल जोरदार नारा लगाने या धोखा देने से नहीं होती, बल्कि कभी-कभी यह दो युवाओं की दोस्ती से भी हो सकती है, जो एक ऐसे राज्य में कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं, जहां जीवित रहना भी एक विद्रोह जैसा लगता है.

महागठबंधन की ताकत लालू यादव के समय बनी राजद की सामाजिक एकता, कांग्रेस की मौजूदगी, वामपंथ के मजबूत संगठन की ताकत, खासकर सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के कार्यकर्ता और छोटे दलों का समूह है. लेकिन इसकी मुख्य ताकत राजद-कांग्रेस-वामपंथ है. 

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महागठबंधन का आधार क्या है

महागठबंधन को समझने के लिए आपको मार्च 1990 में वापस जाना होगा, जब युवा लालू प्रसाद यादव, जेपी आंदोलन की उथल-पुथल से निकलकर, बिहार के मुख्यमंत्री बने. उन्होंने 1997 तक सीधे और फिर 2005 तक राबड़ी देवी के जरिए बिहार पर शासन किया. उन्होंने बिहार की राजनीति को ऊँची जातियों के दबदबे से हटाकर सामाजिक न्याय की नई भाषा दी. चारा घोटाले, आरोप, सजा, और जुलाई 1997 का वह पल जब लालू ने इस्तीफा दिया और राबड़ी देवी आगे आईं, ये सब बिहार की कहानियों में एक सबक और चेतावनी की तरह दर्ज हैं. लेकिन लालू ने यादव-मुसलमान और ओबीसी-दलितों का समीकरण बनाया, यही महागठबंधन की गहरी नींव है.

लेकिन 2005 में कहानी बदल जाती है, जब नीतीश कुमार, बीजेपी के साथ मिलकर राजद का राज खत्म कर देते हैं. इसके दस साल बाद 2015 में बिहार एक बड़ा मोड़ लेता है. राजद-जदयू-कांग्रेस का महागठबंधन बीजेपी को हरा देता है. इसमें राजद सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरती है. इसके बाद 2017, 2022 और 28 जनवरी 2024 को नीतीश फिर से एनडीए में लौट जाते हैं. इससे खेल फिर बदल जाता है. 

वामदलों के झंडे के साथ अपनी वोटर अधिकार यात्रा में शामिल हुई महिलाएं.

वामदलों के झंडे के साथ अपनी वोटर अधिकार यात्रा में शामिल हुई महिलाएं.

बिहार में वोटिंग पैटर्न क्या है

आज महागठबंधन राजद के तेजस्वी यादव के नेतृत्व में नौकरियों की संख्या और सड़कों की किलोमीटर में बात करता है, राहुल गांधी की कांग्रेस, अब बिहार में ज्यादा सक्रिय और जुड़ी हुई है, सीपीआई(एमएल) लिबरेशन के दीपांकर भट्टाचार्य के नेतृत्व में वामपंथ गठबंधन को घर-घर जाकर काम करने की ताकत देता है. 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने बिहार में बाजी मारी (बीजेपी 12, जदयू 12, लोजपा (आरवी) 5, हम-1), लेकिन विपक्ष ने भी पकड़ मजबूत की. राजद चार, कांग्रेस को तीन और सीपीआई(एमएल) को दो सीटें मिलीं. एक सीट निर्दलीय ने जीती थी. ये आंकड़े महागठबंधन को एक सच्चाई दिखाते हैं. बिहार आमतौर पर लोकसभा के लिए अलग और विधानसभा के लिए अलग-अलग पैटर्न पर मतदान करता है.

साल 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को बहुमत मिला (125/243), लेकिन राजद सबसे बड़ी पार्टी बनी (75), बीजेपी को 74, जदयू को 43, कांग्रेस को 19, और वामपंथ ने अपनी ताकत से ज्यादा प्रभाव डाला. इसने तेजस्वी को दो बातें सिखाईं- छोटे-छोटे, लक्षित अभियान मजबूत गढ़ों को तोड़ सकते हैं और सीट बंटवारे में अनुशासन जरूरी है. ये सबक आज की बातचीत में दिखते हैं, जहां वामपंथ बड़ा हिस्सा चाहता है, कांग्रेस अपनी राष्ट्रीय हैसियत के हिसाब से सम्मान मांगती है और छोटे दल ही सौदेबाजी कर रहे हैं.

बक्सर या बेगूसराय के हाइवे के किनारे से देखें, तो वोटर अधिकार यात्रा सत्ता की ओर मार्च कम, बल्कि प्रक्रिया की तीर्थयात्रा ज्यादा लगती है- यह जिद कि वोटर लिस्ट साफ हो, हटाए गए नामों की जाँच हो और जीत-हार का फैसला किसी क्लर्क की गलती से न हो. बिहार बीजेपी और जदयू के कई नेता एसआईआर को चुनाव आयोग का जल्दबाजी में गलत समय पर लिया गया फैसला बताते हैं. वो बताते हैं कि एसआईआर ने महागठबंधन को नई ताकत और हथियार दे दिए हैं. वो कहते हैं कि एसआईआर के बिना एनडीए नवंबर 2025 का चुनाव आसानी से जीत सकता था. लेकिन इससे अब राह कठिन और अनिश्चित हो गई है. 

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