Viren Dangwal ki Best Hindi Poem:'कहीं नहीं था वह शहर, जहां मैं रहा कई बरस' यह कविता है हिंदी साहित्य के मशहूर कवि वीरेन डंगवाल की, जिन्होंने अपनी संवेदनशील और जनवादी कविताओं के माध्यम से सामान्य इंसान की जिंदगी, उसके संघर्ष और आशाओं को बखूबी उकेरा. वीरेन डंगवाल की कविताएं रोजमर्रा की जिंदगी की सादगी, सामाजिक असमानताओं पर तीखा प्रहार, और मानवीयता के प्रति गहरी संवेदना का अनूठा संगम हैं.
उनकी कविता 'जरा सम्हल कर, धीरज से पढ़, बार-बार पढ़, ठहर-ठहर कर, आंख मूंद कर, आंख खोल कर, गल्प नहीं है, कविता है यह'. उनकी कविता के प्रति प्रेम को समाज के सामने लाने का काम करती है. 5 अगस्त 1947 को उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में जन्मे वीरेन डंगवाल ने अपनी रचनाओं से हिंदी कविता को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया. साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित इस कवि का व्यक्तित्व उनकी रचनाओं की तरह ही फक्कड़, यारबाश और जिंदादिल था. उनकी कविताएं न केवल साहित्यिक मंचों पर गूंजती थीं, बल्कि आम जनमानस के दिलों में भी गहरी पैठ रखती थीं.
वीरेन डंगवाल को उनकी लिखी कविताओं के लिए कई पुरस्कारों से भी नवाजा गया. उन्होंने 'इसी दुनिया में' (1991), 'दुश्चक्र में सृष्टा' (2002), और 'स्याही ताल' के लिए खूब वाहवाही भी बटोरी. 'इसी दुनिया में' के लिए उन्हें रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992) और श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार (1993) प्राप्त हुआ, जबकि 'दुश्चक्र में सृष्टा' के लिए उन्हें 2004 में साहित्य अकादमी पुरस्कार और शमशेर सम्मान से सम्मानित किया गया. 28 सितंबर 2015 को 68 वर्ष की आयु में बरेली में उनका निधन हो गया. वीरेन डंगवाल की कविताएं आज भी हिंदी साहित्य के विद्यार्थियों, शोधार्थियों और साहित्य प्रेमियों के बीच लोकप्रिय हैं. उनकी रचनाएं सामान्य जीवन की असाधारण कहानियों को बयान करती हैं, जो पाठकों को समाज और मानवता के प्रति संवेदनशील बनाती हैं. पढ़िए उनकी कविताएं.
एक
कहीं नहीं था वह शहर
जहाँ मैं रहा कई बरस जाना प्रेम,
अतीव सुंदर
उस कहीं नहीं शहर में।
यों लगता था ख़ाली
गो कि मकान थे बहुत
जमी हुई खपरैलों वाले विशाल ‘मकानात'
और उनमें लोग भी रहते होंगे।
मुहल्ले-भरपूर-बूढ़े। क्या ही सजीले पान। मिठाई की दुकानें।
एक से एक बढ़कर। सूरमा मच्छर।
मेला साल में एक बार ज़बरदस्त।
उस तरफ़ पेड़ भी बहुत से। झाड़, मेहँदी के।
जलपक्षी।
कभी कोई भटकते चले आते आबादी तक—‘समुद्री कौए'।
गर्मी की सूनी लपक-लू सड़क पर
चलता चला जाता रिक्शा पालदार नाव की तरह मद्धम
खिंचता मगर
एक आदमी के प्राणों से।
इन्हीं सबके बीच पाया था मैंने तुम्हें
उस शहर में
जो कहीं था ही नहीं।
दो
तभी मैंने जानी
नमक के स्वाद की दिव्यता।
तभी मैंने जाना
स्वप्न दरअसल नींद में आते हैं, तो मजबूरी में।
तभी मैंने जाना
कुछ पाए बग़ैर भी मुमकिन है सुख।
तभी मैंने जाना
हम जैसों के लिए भी बनी है पृथ्वी।
तीन
कबूतर ढेर सारे
गुंबदों की ढलानों पर भी, इत्मीनान से
उनमें कई सफ़ेद, चितकबरे भी
घर का मोह छोड़ आए दिलेर।
जैसे उदासी में जबरन घुसी ठिठोली।
चीलें तो ख़ैर वयस्त रहतीं, आसमान में
अपना अहिस्ता फ़ुटबॉल खेलने में
लिहाज़ा इन्हीं कबूतरों के सुपुर्द थी उस शहर की
चौकसी
ग़नीमत थी कि
वह कहीं था ही नहीं।
चार
‘मेहनत'—हाँ ज़रूरी है
गुज़ारा कहाँ इसके बग़ैर।
मगर ‘मेहनतकश'—बिल्कुल नहीं
कहीं नहीं शहर में निषिद्ध है यह शब्द।
पाँच
दो सौ कमरों की इमारत
चार सौ खिड़कियाँ
घूरती बाहर अँधेरे को
ज्वर-जलित निगाहों से।
बाहर अँधेरे को झाड़ता नीम शाँय-शाँय
घोलता
रात्रि की शीतलता में
अपनी पकी पीली निमोलियों की
आयुर्वेदिक सुगंध।
सो जाओ बच्चो, रात बहुत हो चली
अभी दिन है परीक्षाओं में।
या फिर फूट ही पड़ो एक समवेत गान में
खील-खील करते यह अंधकार।
शामिल होऊँ मैं भी, अधेड़।
छह
उल्लसित
कोई भी हो सकता है
रात जैसी चीज़ तक
जो असल में कोई चीज़ तो हरगिज़ नहीं।
ऐसी फ़रेबसंभवा है भाषा
मगर एक क़दम रखना भी मुमकिन नहीं उसके बग़ैर
वहाँ उस कहीं नहीं शहर में।
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आईएएनएस इनपुट के साथ