Bhawani Prasad Mishra Ki kavitayen: तुम बंजर हो जाओगे, यदि इतने व्यवस्थित ढंग से रहोगे...पढ़िए भवानी प्रसाद मिश्र की कविता

Bhawani Prasad Mishra Ki kavitayen: हिंदी बिरादरी के भवानी प्रसाद मिश्र को कवियों का कवि भी कहा गया है.चलिए पढ़ते हैं आज उनकी शानदार कविताएं.

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नई दिल्ली:

Bhawani Prasad Mishra Ki kavitayen: भवानी प्रसाद मिश्र की कविता की कविताएं इन दिनों सोशल मीडिया पर काफी वायरल है. उन्होंने कई कविताएं लिखी जो आज भी खूब पसंद की जाती है, अज्ञेय ने भवानीप्रसाद मिश्र की कविता के हवाले से नई कविता में इस अनूठे रस को मिश्र रस कहा और गंभीर बातों को भी हलके ढंग से कहने को उल्लेखनीय माना. हिंदी बिरादरी के भवानी प्रसाद मिश्र को कवियों का कवि भी कहा गया है.चलिए पढ़ते हैं आज उनकी शानदार कविताएं.

तुम बंजर हो जाओगे 
यदि इतने व्यवस्थित ढ़ँग से रहोगे 
यदि इतने सोच समझकर 
बोलोगे चलोगे, 
कभी मन की नहीं कहोगे 
सच को दबाकर झूठे प्रेम के गाने गाओगे 
तो मैं तुमसे कहता हूँ तुम बंजर हो जाओगे.

तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको,

तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको,
फिर चुपके-चुपके धाम बता दूँ तुमको;

तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे-धीमे
मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको।

कुछ लोग भ्रांतिवश मुझे शांति कहते हैं,
नि:स्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं;

मैं शांत नहीं नि:स्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ,
मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं।

कभी-कभी कुछ मुझमें चल जाता है,
कभी-कभी कुछ मुझमें जल जाता है;

जो चलता है, वह शायद है मेंढक हो,
वह जुगनू है, जो तुमको छल जाता है।

मैं सन्नाटा हूँ, फिर भी बोल रहा हूँ,
मैं शांत बहुत हूँ, फिर भी डोल रहा हूँ;

यह ‘सर्-सर्' यह ‘खड़-खड़' सब मेरी है,
है यह रहस्य मैं इसको खोल रहा हूँ।

मैं सूने में रहता हूँ, ऐसा सूना,
जहाँ घास उगा रहता है ऊना;

और झाड़ कुछ इमली के, पीपल के,
अंधकार जिनसे होता है दूना।

तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ खड़ा हूँ,
तुम देख रहे हो मुझको, जहाँ पड़ा हूँ;

मैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूँ.
मैं ऐसी ही जगहों में पला, बढ़ा हूँ।

हाँ, यहाँ किले की दीवारों के ऊपर,
नीचे तलघर में या समतल पर भू पर

कुछ जन-श्रुतियों का पहरा यहाँ लगा है,
जो मुझे भयानक कर देती हैं छू कर।

तुम डरो नहीं, डर वैसे कहाँ नहीं है,
पर ख़ास बात डर की कुछ यहाँ नहीं है;

बस एक बात है, वह केवल ऐसी है,
कुछ लोग यहाँ थे, अब वे यहाँ नहीं हैं।

यहाँ बहुत दिन हुए एक थी रानी,
इतिहास बताता उसकी नहीं कहानी,

वह किसी एक पागल पर जान दिए थी,
थी उसकी केवल एक यही नादानी।

यह घाट नदी का, अब जो टूट गया है,
यह घाट नदी का, अब जो फूट गया है—

वहाँ यहाँ बैठ कर रोज़-रोज़ गाता था,
अब यहाँ बैठना उसका छूट गया है।

शाम हुए रानी खिड़की पर आती,
थी पागल के गीतों को वह दुहराती;

तब पागल आता और बजाता बंसी,
रानी उसकी बंसी पर छुप कर गाती।

किसी एक दिन राजा ने यह देखा,
खिंच गई हृदय पर उसके दुख की रेखा;

वह भरा क्रोध में आया और रानी से,
उसने माँगा इन सब साँझों का लेखा।

रानी बोली पागल को ज़रा बुला दो,
मैं पागल हूँ, राजा, तुम मुझे भुला दो;

मैं बहुत दिनों से जाग रही हूँ राजा,
बंसी बजवा कर मुझे ज़रा सुलो दो।

वह राजा था हाँ, कोई खेल नहीं था,
ऐसे जवाब से उसका मेल नहीं था;

रानी ऐसे बोली थी, जैसे उसके
इस बड़े क़िले में कोई जेल नहीं था।

तुम जहाँ खड़े हो, यहीं कभी सूली थी,
रानी की कोमल देह यहीं झूली थी;

हाँ, पागल की भी यहीं, यहीं रानी की,
राजा हँस कर बोला, रानी भूली थी।

किंतु नहीं फिर राजा ने सुख जाना,
हर जगह गूँजता था पागल का गाना;

बीच-बीच में, राजा तुम भूल थे,
रानी का हँस कर सुन पड़ता था ताना।

तब और बरस बीते, राजा भी बीते,
रह गए क़िले के कमरे-कमरे रीते,

तब मैं आया, कुछ मेरे साथी आए,
अब हम सब मिलकर करते हैं मनचीते।

पर कभी-कभी जब पागल आ जाता है,
लाता है रानी को, या गा जाता है;

तब मेरे उल्लू, साँप और गिरगट पर
अनजान एक सकता-सा छा जाता है।
 

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