Sant Kabir ke Dohe: पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ... कबीर की ये कविताएं हर बच्चों को याद होनी चाहिए

Sant Kabir ke Dohe: संत कबीर के दोहे बचपन में किताबों में पढ़ाए जाते थे. हिंदी की किताबों में इनके दोहे याद कराए जाते थे. क्या आपको याद है कबीर के ये बेहतरीन दोहे.

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नई दिल्ली:

Sant Kabir ke Dohe: संत-कवि कबीर दास का जन्म 15वीं शताब्दी के मध्य में काशी (वाराणसी, उत्तर प्रदेश) में हुआ था. कबीर के जीवन के विवरण कुछ अनिश्चित हैं. उनके जीवन के बारे में अलग-अलग विचार, विपरीत तथ्य और कई कथाएं हैं. यहाँ तक कि उनके जीवन पर बात करने वाले स्रोत भी अपर्याप्त हैं उनके लिखे दोहे आज भी किताबों में पढ़ाई जाते हैं. उनकी कविताएं इंसानियत और प्रेम को समर्पित है. हर व्यक्ति को कबीर के दोहे पढ़ने चाहिए और जीवन का सार्थक तरीके से जीने की कला सीखनी चाहिए. 

संत कबीर के दोहे 

ऐसी बाँणी बोलिये, मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै, औरन कौं सुख होइ॥

कस्तूरी कुंडलि बसै, मृग ढूँढै बन माँहि।
ऐसैं घटि घटि राँम है, दुनियाँ देखै नाँहि॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाँहिं।
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि॥

सुखिया सब संसार है, खाए अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥

बिरह भुवंगम तन बसै, मंत्र न लागै कोइ।
राम बियोगी ना जिवै, जिवै तो बौरा होइ॥

निंदक नेड़ा राखिये, आँगणि कुटी बँधाइ।
बिन साबण पाँणीं बिना, निरमल करै सुभाइ॥

पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुवा, पंडित भया न कोइ।
एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होइ॥

हम घर जाल्या आपणाँ, लिया मुराड़ा हाथि।
अब घर जालौं तासका, जे चले हमारे साथि॥

प्रेमी ढूँढ़त मैं फिरूँ, प्रेमी मिलै न कोइ।
प्रेमी कूँ प्रेमी मिलै तब, सब विष अमृत होइ॥

अर्थ- परमात्मा के प्रेमी को मैं खोजता घूम रहा हूँ परंतु कोई भी प्रेमी नहीं मिलता है। यदि ईश्वर-प्रेमी को दूसरा ईश्वर-प्रेमी मिल जाता है तो विषय-वासना रूपी विष अमृत में परिणत हो जाता है।

मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा।
तेरा तुझकौं सौंपता, क्या लागै है मेरा॥

अर्थ-मेरे पास अपना कुछ भी नहीं है। मेरा यश, मेरी धन-संपत्ति, मेरी शारीरिक-मानसिक शक्ति, सब कुछ तुम्हारी ही है। जब मेरा कुछ भी नहीं है तो उसके प्रति ममता कैसी? तेरी दी हुई वस्तुओं को तुम्हें समर्पित करते हुए मेरी क्या हानि है? इसमें मेरा अपना लगता ही क्या है?

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मन के हारे हार हैं, मन के जीते जीति।
कहै कबीर हरि पाइए, मन ही की परतीति॥

अर्थ- मन के हारने से हार होती है, मन के जीतने से जीत होती है (मनोबल सदैव ऊँचा रखना चाहिए)। मन के गहन विश्वास से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है।

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मानुष जन्म दुर्लभ है, बहुरि न दूजी बार।
पक्का फल जो गिर पड़ा, बहुरि न लागै डार॥

अर्थ-मनुष्य का जन्म पुन: मिलना बड़ा कठिन है। पके फल जब डाली से टूटकर गिर पड़ते हैं तब वे पुन: लौटकर उसमें नहीं लगते। इसी प्रकार जीव जब देह छोड़कर चला जाता है तब पुन: उसमें नहीं लौटता।

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