अब शॉर्ट फिल्म को नही ले सकते 'पार्ट टाइम', पढ़ें 'पार्ट टाइम जॉब' का रिव्यू

एक्टर मनोज बाजपेयी की जीवनी लिख चुके पत्रकार पीयूष पांडे शॉर्ट फिल्म 'पार्ट टाइम जॉब' लेकर आए हैं. जानें कैसी है फिल्म.

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जानें कैसी है पीयूष पांडे की शॉर्ट फिल्म 'पार्ट टाइम जॉब'
नई दिल्ली:

ओटीटी के इस दौर में अब दर्शक घंटों लम्बी वेब सीरीज देखना पसंद कर रहे हैं तो एक तरफ बीस से तीस मिनट की शॉर्ट फिल्मों को देखने में भी उनकी रुचि बढ़ी है. इसी को देखते हुए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अग्रणी चैनलों में काम कर चुके और एक्टर मनोज बाजपेयी की जीवनी लिखने वाले पत्रकार पीयूष पांडे यूट्यूब 'द शॉर्ट कट' चैनल में 21:05 मिनट की शॉर्ट फिल्म 'पार्ट टाइम जॉब' हमारे सामने लाए हैं.

काम काम और काम

पिछले पांच-छह दशकों में भारतीय समाज में एकल परिवार का चलन बढ़ा है. ज्यादा पैसा कमाने की चाह, इन परिवारों में माता-पिता को अपने बच्चों से दूर कर रही है. यह शॉर्ट फिल्म भी इसी गम्भीर विषय पर बनाई गई है. फिल्म की कहानी ऐसे दंपत्ति की है जो काम की वजह से अपने बच्चे को वक्त नहीं दे पाते और इसका अंजाम आंखें खोलने वाला है. ऐसे अलग विषयों पर भारतीय सिनेमा में बहुत कम फिल्मों का निर्माण किया गया है. पीयूष ने ऐसा विषय हमारे सामने लाकर वाकई हिम्मत भरा काम किया है.

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राज को आखिर तक राज ही रखते हैं पीयूष

साल 2017 में आई फिल्म 'ब्लू माउंटेंस' फिल्म में एसोसिएट निर्देशक के तौर पर काम करने वाले पीयूष पांडे ने फिल्म देखते हुए शुरू से आखिर तक दर्शकों को सोचने पर मजबूर किया है. कुछ मिनटों के अंदर ही हम सारे पात्रों और घटनाक्रमों से परिचित होते जाते हैं, पर निर्देशक ने इस कहानी के एक महत्वपूर्ण राज को अंत में ही खोला है. कभी दर्शकों को लगेगा कि यह शॉर्ट फिल्म, पति-पत्नी के बीच किसी तीसरे की कहानी है, कभी वह सोचेंगे कि यह भूत प्रेत से जुड़ी कहानी है पर अंत में वह सन्न रह जाते हैं. इस शॉर्ट फिल्म की एक खासियत यह भी है कि इसमें अन्य बहुत सी शॉर्ट फिल्मों की तरह एक या दो लोकेशन तक ही सीमित नही रहा गया है. इसमें आपको बहुत से लोकेशन दिखाई देंगे जो इसकी कहानी को और बड़ा होता महसूस करवाते हैं.

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फिल्म में एक दृश्य है, जहां अच्छा टेबल टेनिस खेलने पर बच्चे के लिए खूब तालियां बजती हैं पर उन तालियों को सुनने के लिए उस बच्चे के माता-पिता के पास वक्त नही है. यह दृश्य दिखा कर निर्देशक अपने अंदर बच्चों के भविष्य के प्रति बढ़ रही बेचैनी को दर्शकों के सामने प्रस्तुत करने में कामयाब रहे हैं.

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शॉर्ट फिल्म में दिख रहे हैं बेहतरीन कलाकार

इस फिल्म में कलाकार श्रेया नारायण हैं, जो रॉकस्टार, सुपर नानी, साहेब बीवी और गैंगस्टर जैसी बड़ी फिल्मों में दिखाई दी थी. श्रेया के पति का किरदार निभाने वाले अभिनेता हेमंत माहोर हैं. एनएसडी से पासआउट हेमंत 'हाइवे' और 'फैंटम' में भी दिखाई दिए थे.

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श्रेया एक ऐसी महिला के किरदार में हैं जो अपने पति के साथ काम करते हुए ,अपने परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत रखना चाहती है. श्रेया नारायण ने बड़े पर्दे से चाहे लोकप्रियता न पाई हो पर इस शॉर्ट फिल्म के जरिए उन्होंने खुद की पहचान जरूर बनाई है. वह खूबसूरत भी हैं और उन्होंने कामकाजी के साथ घरेलू महिला का किरदार बखूबी निभाया है.

हेमंत फिल्म में हिंदी के अध्यापक बने हैं, जो काम की वजह से न जिम्मेदार पति बन पा रहा है और न ही पिता के तौर पर अपने बच्चे को समय दे पाता है. उनकी और श्रेया की जोड़ी जमी है. हेमंत माहोर गम्भीर और हास्य, दोनों तरह के किरदारों को बखूबी निभाने की क्षमता रखने वाले कलाकार लगते हैं. उनकी संवाद अदायगी में बेहद स्पष्टता है.

संवाद 'हिंदी कौन पढ़ना चाहता है आजकल. हिंदी के टीचरों को ट्यूशन नहीं मिलते, हिंदी मातृभाषा है बाजार की भाषा है. ट्यूशन की भाषा नहीं है.' इसका उदाहरण है.


तकनीकी रूप से मजबूत है यह फिल्म

पटकथा लेखन की वजह से ही फिल्म अपने जबरदस्त अंत को दर्शकों को सही तरीके से समझाने में कामयाब रही है. कलाकारों की वेशभूषा पर भी खासा ध्यान दिया गया है. कामकाजी महिला की तरह कपड़े, शिक्षक की तरह कुर्ता, यह सब फिल्म को तकनीकी रुप से मजबूत बनाता है. साउंड डिजाइन पर ध्यान दिया जाए तो वह भी आला दर्जे का है, इसकी वजह से यह शॉर्ट फिल्म शुरू से दर्शकों को रोमांचित करती है. रबीउल एजाज का छायांकन प्रभावित करता है. फिल्म का पहला दृश्य ही देखने में ध्यान खींचता है. टेबल टेनिस मैच से जुड़े दृश्य भी देखने में अच्छे लगते हैं.

आखिर स्त्री ही क्यों! पर फिर भी शुरुआत तो हुई

फिल्म में एक स्त्री को बच्चे की परवरिश ठीक से न कर पाने की वजह से खुद को कोसते दिखाया गया है, यह हमारे समाज का दर्पण है. किसी के दाम्पत्य जीवन में पुरुष और महिला दोनों की ही अपने बच्चे के पालन पोषण को लेकर बराबर जिम्मेदारी होती है. यदि यह कहानी स्त्री केंद्रित न होकर पुरुष पर केंद्रित होती तो इस नए विषय में और भी जान फूंकी हुई लगती.

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