नेटफ्लिक्स–वॉर्नर विलय से भारतीय सिनेमा को चुनौती

80 अरब डॉलर से अधिक के इस सौदे में दुनिया के सबसे बड़े स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स और सिनेमा के इतिहास में अहम भूमिका निभाने वाले स्टूडियो वॉर्नर ब्रदर्स का एकीकरण हुआ है.

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नेटफ्लिक्स–वॉर्नर विलय से भारतीय सिनेमा को चुनौती
नई दिल्ली:

हाल ही में वॉर्नर ब्रदर्स का नेटफ्लिक्स के अधीन आना वित्तीय जगत में एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा है. 80 अरब डॉलर से अधिक के इस सौदे में दुनिया के सबसे बड़े स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स और सिनेमा के इतिहास में अहम भूमिका निभाने वाले स्टूडियो वॉर्नर ब्रदर्स का एकीकरण हुआ है. निवेशकों के लिए यह सौदा विस्तार, गुणवत्ता और बाजार पर पकड़ का संकेत देता है. लेकिन फिल्मकारों, लेखकों, और दर्शकों के लिए, विशेषतया गैर-पश्चिमी देशों में, यह कई गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. यह सौदा केवल एक व्यापारिक बदलाव नहीं, बल्कि कथानक की परंपरा, रचनात्मकता और सिनेमा को एक साझा-सार्वजनिक अनुभव के रूप में देखने के भविष्य से जुड़ा सांस्कृतिक बदलाव है. भाषाओं और कथाओं की विविधता से भरा भारतीय सिनेमा इस दौर में सबसे अधिक संवेदनशील दिखाई देता है. यह एकीकरण “वन-साइज़-फिट्स-ऑल” दृष्टिकोण को केंद्र में रखने वाला है, जो रचनात्मक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विविधता दोनों के लिए खतरा है. साथ ही यह मनोरंजन क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत की आकांक्षा को भी चुनौती देने वाला है.

प्रतिस्पर्धा से एकाधिकार की ओर
पहले नेटफ्लिक्स और वॉर्नर ब्रदर्स दो अलग-अलग रचनात्मक इकाइयां थे. वॉर्नर ब्रदर्स एक सदी पुरानी स्टूडियो संस्कृति का प्रतीक था, जहां सिनेमाघरों के लिए फिल्में बनती थीं, लंबी कहानियां कही जाती थीं और रचनात्मक इकाइयों की अहम भूमिका थी. वहीं नेटफ्लिक्स अपनी गति, डेटा आधारित फिल्म निर्माण और विश्व पटल पर स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म के प्रभुत्व का प्रतीक था. इस विलय के बाद इन दोनों संस्कृतियों को एक ही कॉरपोरेट ढांचे में समेट दिया जाएगा जिसे कईं विचारक अप्राकृतिक बता रहे है. इस गठजोड़ में जहां नेटफ्लिक्स द्वारा इन दोनों शैलियों के सहयोग की बात की जा रही है, वहीं अप्राकृतिक केन्द्रीकरण को असली खतरा माना जा है. सिनेमा जगत में अनेक स्टूडियो, डिस्ट्रीब्यूटर, प्रोडक्शन हाउस होने के स्थान पर एक ही बड़े निर्णयकर्ता के रह जाने से शैली की विविधता और रिस्क-टेकिंग की क्षमता पर भी प्रभाव पड़ता है. फिल्मकार अलग-अलग रचनात्मक विचारों को नहीं, बल्कि एक एल्गोरिदम-आधारित अप्रोच को अपनी कहानी के केंद्र में लाने पर मजबूर हो जाते हैं. भारतीय निर्देशक विवेक अग्निहोत्री के अनुसार, जैसे एक स्वस्थ जंगल के लिए कई पेड़ और पौधों की जरूरत होती हैं, वैसे ही एक स्वस्थ सांस्कृतिक पारितंत्र के लिए कई आवाज़ों और मंचों की जरूरत होती है. जैसे एक बहुत बड़ा पेड़ छोटे पौधों तक धूप नहीं पहुंचने देता, उसी प्रकार नेटफ्लिक्स-वार्नर विलय जैसे संस्थान छोटे लेकिन विविध सांस्कृतिक रचनाओं का भरण-पोषण अवरुद्ध करते है.

“वॉलमार्ट स्टोरीटेलिंग” का युग 
विवेक अग्निहोत्री ने इस विलय को “वॉलमार्ट स्टोरीटेलिंग” के युग की शुरुआत कहा है. “वॉलमार्ट स्टोरीटेलिंग” की परिभाषा देते हुए वे कहते है कि जिस प्रकार वॉलमार्ट बड़े स्तर पर सामग्रियों का अधिग्रहण कर मार्केट से कम दर पर स्टैण्डर्ड उत्पाद बेचता है, उसी प्रकार कहानियों को बड़े पैमाने पर लगभग-लगभग एक ही कलेवर में ढाल कर विविध ऑडियंस को बेचा जाता है. ऐसी कहानियां एक स्टैण्डर्ड पर, पूर्व-प्रत्याशित और अधिकतम दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं. नेटफ्लिक्स जैसे वैश्विक प्लेटफॉर्म अक्सर ‘यूनिवर्सल ऑडियंस' की तलाश में रहते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में सांस्कृतिक गहराई और स्थानीय रंग फीके पड़ने लगते हैं. धीरे-धीरे स्थानिक बारीकियां, स्थानिक कलेवर और असहज विषय कथानक के केंद्र से हटते जाते हैं. बचता है तो केवल सुरक्षित और बार-बार दोहराया जाने वाला कंटेंट, जो अनुभव से नहीं बल्कि डेटा से तय होता है. इस मॉडल में कहानियों को नाज़ी और स्टालिन शासन की तरह खुलकर सेंसर नहीं किया जाता, बल्कि समानता को पुरस्कृत करके मौलिकता को किनारे कर दिया जाता है. समय के साथ अलग-अलग संस्कृतियों की फिल्में और वेब सीरीज़ एक जैसी लगने लगती हैं. "वैश्विक संस्कृति" के छद्म आवरण में यह गठजोड़ असल में "वैश्विक एकरूपता" है.

भारतीय कथानकों पर विलय के प्रभाव 
भारत की कहानियां प्राचीन महाकाव्यों, लोककथाओं, क्षेत्रीय सिनेमा और समकालीन स्वतंत्र फिल्मों से बनी हैं, जिनकी जड़ें संस्कृति, दर्शन और सामाजिक वास्तविकता में हैं. भारत में नेटफ्लिक्स के आगमन के लगभग एक दशक बाद भी बहुत कम ऐसी मौलिक रचनाएं हैं जो भारत की सभ्यतागत गहराई को दिखा पाती हों. नेटफ्लिक्स-रचित अधिकतर लोकप्रिय शो शहरी अपराध, निराशावाद या पश्चिम-केंद्रित युवा नैरेटिव पर केंद्रित रहते हैं. ये कहानियां भारत में स्थित तो होती हैं, लेकिन भारत की वैश्विक दृष्टि से दूर रहती हैं. यह विलय इस स्थिति को और गंभीर बना सकता है. जब एक वैश्विक कंपनी कंटेंट की पूरी श्रृंखला नियंत्रित करती है, तो भारतीय कहानियां वैश्विक बाजार के चश्मे से छनकर आती हैं, न कि वास्तविकता से. क्षेत्रीय फिल्में और सामाजिक कथाएं पहले ही बड़े वैश्विक फ्रेंचाइज़ी के सामने कमजोर मानी जाती हैं. ऐसे में जब एक ही कंपनी के पास सारे बड़े स्तंभ हों, तो उन्हें छोटे रचनात्मक और वास्तविक प्रयासों की जरूरत ही नहीं रह जाती.

सिनेमाघरों का भविष्य
फिल्मकारों की एक और बड़ी चिन्ता सिनेमाघरों को लेकर है. नेटफ्लिक्स ने हमेशा सिनेमा-प्रथम मॉडल के प्रति संकुचित रुचि दिखाई है. नेटफ्लिक्स रचनाओं की थिएटर रिलीज़ अक्सर बहुत कम समय के लिए होती हैं, जिसका मूल उद्देश्य केवल फिल्म अवॉर्ड के लिए अहर्ता-पूर्ति होता है. नेटफ्लिक्स के सीईओ टेड सारांडोस के पुराने बयान, जिसमें उन्होंने पारंपरिक थिएटर रिलीज़ को “पुरानी सोच” कहा था, ने पहले ही सिनेमा जगत की चिन्ताएं बढ़ाई है. बाद में उन्होंने थिएटर और स्ट्रीमिंग के साथ रहने की बात कही, लेकिन कंपनी की नीति में बड़ा बदलाव नहीं दिखता. कई फिल्मकार मानते हैं कि सिनेमा सिर्फ देखने और व्यक्तिगत उपभोग का माध्यम नहीं, बल्कि सामूहिक अनुभव भी है. फिल्मकार ग्रेगरी ऑर के अनुसार, सिनेमाघर में फिल्म देखना घर पर अकेले देखने से बिल्कुल अलग अनुभव है. जेम्स कैमरून ने इस अधिग्रहण को थिएटर सिनेमा के लिए “आपदा” तक कह दिया है.

आज का कंपनी राज?
कई आलोचकों ने भारत में अमेरिकी स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म्स के बढ़ते प्रभुत्व के लिए "नए दौर के कंपनी राज" उपमा दे कर टिप्पणी की है. आज भारत का अधिकांश कंटेंट नेटफ्लिक्स, अमेज़न, आदि समेत कुछ ही वैश्विक कंपनियों के हाथ में है. भारत ने पिछले दस सालों में डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर और तकनिकी टैलेंट तो तैयार किया, लेकिन अपने कथानकों को उजागर करने हेतु वैश्विक व्यवस्था स्थापित नहीं कर पाया. नतीजा यह है कि आज भारतीय कहानियां विदेशी मापदण्डों और प्राथमिकताओं की शर्तों पर आगे बढ़ रही हैं. हालांकि, अब तक नेटफ्लिक्स, इत्यादि ने किसी भी भारतीय फिल्म स्टूडियो का अधिग्रहण अथवा उसमे निवेश नहीं किया है, लेकिन इन वैश्विक स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म की इंटेलेक्टुअल प्रॉपर्टी अधिग्रहित करने की नीति और फिल्म निर्माण में भागीदारी पश्चिम-निर्धारित नैरेटिव स्थापित करते है. यह सांस्कृतिक संप्रभुता की दृष्टि से चिन्ता का विषय है.

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आत्मनिर्भर भारत और सिनेमा
आत्मनिर्भरता के लिए सांस्कृतिक आत्मविश्वास के साथ-साथ अपने सांस्कृतिक नैरेटिव विश्व को बताना भी जरूरी है. हॉलीवुड अपनी फ़िल्में आउटसोर्स करके सिनेमा जगत पर प्रभुत्व नहीं रखता. ना ही कोरिया अपने सांस्कृतिक नैरेटिव विदेशी हाथों में सौंप कर अपनी सॉफ्ट पावर बढ़ाता है. सिनेमा को सॉफ्ट पावर कहा गया है. आपकी कहानियां और उसका चित्रण तय करता है कि दुनिया आपको और आप अपने आप को कैसे देखते है. अगर भारतीय फिल्मकार जबरदस्ती विदेशी एल्गोरिदम के हिसाब से कहानियां गढ़ेंगे, तो भारत सांस्कृतिक नेतृत्व नहीं, बल्कि केवल कंटेंट का उपभोक्ता और सप्लायर बन जाएगा. आत्मनिर्भर भारत तब तक अधूरा है, जब तक भारत के कथानक विदेशी संस्थानों द्वारा निर्धारित और शोषित किये जाते है.

भारत ही नहीं, अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री द्वारा भी इस विलय के कारण फिल्म निर्माण में हितधारकों की संख्या के घटने पर आपत्ति जताई जा रही है. इस विलय के कारण होने वाले केन्द्रीकरण से अवसरों की कमी और आजीविका की बढ़ती असुरक्षा भी फिल्मकारों और विविध तकनिकी कर्मचारियों के लिए अमेरिका में भी चिन्ता का विषय है. इन मुद्दों का स्तर भारत में क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है. मल्टीप्लेक्स एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया ने भी चेताया है कि यह विलय थिएटर के व्यापर और अंततोगत्वा डिस्ट्रीब्यूटर, तकनिकी कर्मचारी और पूरी फिल्म इकॉनमी को बुरी तरह प्रभावित कर सकती है.

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अवलोकन के मापदण्ड 
नेटफ्लिक्स–वॉर्नर विलय हमें विचार करने पर मजबूर करता है कि संस्कृति को केवल उपभोग की वस्तु की तरह नहीं देखा जा सकता. इस समय भारतीय सिनेमा को गेहेन अवलोकन करने की आवश्यकता है कि:
1.    भारतीय कहानियों को कौन नियंत्रित कर रहा है?
2.    इस सांस्कृतिक केन्द्रीकरण से किसे लाभ होगा?
3.    इस एकाधिकार से क्षेत्रीय सिनेमा का भविष्य क्या होगा?
4.    और आत्मनिर्भरता की आकांक्षा का भविष्य क्या होगा?
भारतीय सिनेमा की विविधता और स्वायतत्ता का संवर्धन करने हेतु आवश्यक है कि भारत अपने स्वतंत्र फिल्म संस्थानों और विविध स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म को प्रोत्साहित करे. इस विलय का विरोध तकनीक और विश्वव्यापी ऑडियंस का विरोध नहीं है, बल्कि संतुलन, नियमन और रचनात्मक स्वतंत्रता की मांग पर आधारित है. भारत के लिए आवश्यक है कि भारतीय कथाएं भारतीय कलेवर में राखी जाएं, न कि केवल वैश्विक उपभोग हेतु परोस दी जाएं. 

विश्व को अधिक कंटेंट नहीं, बल्कि अधिक सांस्कृतिक प्रस्तुति की आवश्यकता है. सिनेमा फैक्ट्री में नहीं, बल्कि स्वतंत्रता में पनपता है. इस विचार के आधार पर आवश्यक है कि फिल्म जगत और सभ्य समाज के सदस्य जागरूकता से विचार-विमर्श करें. नेटफ्लिक्स-वार्नर विलय का मुद्दा केवल यह नहीं है कि मनोरंजन का नियंत्रण कौन कर रहा है, बल्कि यह भी है कि कौन कल्पना और रचनात्मकता को नियंत्रण कर रहा है. साथ ही इस चर्चा का मुद्दा यह होना चाहिए कि भारतीय और गैर-पश्चिमी संस्कृति पर किसका दूरगामी वर्चस्व रहेगा.

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