होमबाउंड के निर्देशक नीरज घेवन ने कहा -“अनिवार्य है कि दलित, मुस्लिम और LGBTQ+ हमारे क्रू का हिस्सा हों”

कान्स और टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में तारीफ पा चुकी नीरज घेवन की फिल्म ‘होमबाउंड’ को भारत से इस साल ऑस्कर में भेजा गया है. देश में यह फिल्म 26 सितम्बर को रिलीज़ होने जा रही है.

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नीरज घेवन की फिल्म ‘होमबाउंड’ को भारत से इस साल ऑस्कर में भेजा गया है
नई दिल्ली:

कान्स और टोरंटो फिल्म फेस्टिवल में तारीफ पा चुकी नीरज घेवन की फिल्म ‘होमबाउंड' को भारत से इस साल ऑस्कर में भेजा गया है. देश में यह फिल्म 26 सितम्बर को रिलीज़ होने जा रही है. हाल ही में प्रेस मीट में निर्देशक और कलाकारों ने अपने अनुभव साझा करते हुए यह साबित कर दिया कि फिल्म के निर्देशक नीरज सिर्फ पर्दे पर कहानियां नहीं कहते, बल्कि जिन कहानियों में उन्हें विश्वास है, उनकी सीख को अमल में भी लाते हैं. फिल्म के अभिनेता ईशान खट्टर ने नीरज के सेट पर किस तरह का माहौल होता है, यह बताया और किस तरह बतौर इंसान वहाँ सबको सम्मान दिया जाता है, इसका खुलासा किया, जो बाक़ी फिल्मों के सेट से बिल्कुल अलग है. 

फिल्म की वर्कशॉप्स के बारे में बताते हुए ईशान ने कहा, “नीरज भाई किसी भी फिल्म को शुरू करने से पहले टीम मीटिंग करते हैं. सबसे पहले वे कहते हैं किसी को भी अपने से छोटा या बड़ा मत समझो. सेट पर कोई ऊँच-नीच नहीं है. सब बराबर हैं. हर किसी को नाम से बुलाओ, चाहे वह स्पॉट दादा हो या लाइट दादा. हर इंसान फिल्म का बराबर योगदानकर्ता है. यह बहुत दुर्लभ गुण है और नीरज भाई वही करते हैं जो वे कहते हैं.”

इसके आगे निर्देशक नीरज घेवन ने इस पर और रोशनी डालते हुए कहा, “हमारे सेट पर सबसे बड़ा नियम यही है कि 50 प्रतिशत से अधिक क्रू महिलाओं का होगा और वे सिर्फ दिखावे के लिए नहीं, बल्कि विभागाध्यक्ष होंगी. और यह भी अनिवार्य है कि दलित, मुस्लिम और LGBTQ+ समुदाय के लोग हमारे क्रू का हिस्सा हों. मैं हमेशा उन्हें ही प्राथमिकता देता हूं जिन्हें समाज ने अक्सर नज़रअंदाज़ किया है.”

ईशान खट्टर ने आगे कहा, “मैंने नीरज भाई से सीखा कि सिर्फ अच्छी नीयत काफी नहीं होती, बल्कि सामाजिक रूप से जागरूक होना भी ज़रूरी है. अगर आप समाज में विशेष सुविधा पाते हैं तो आपकी ज़िम्मेदारी बनती है कि आप उसे समाज को बेहतर बनाने में लगाएं.”

फिल्म के सेट पर चलन यही है कि लोग वहां एक-दूसरे को नाम से नहीं, बल्कि उनके काम से बुलाते हैं. अगर कोई सेट की टीम से है तो ‘सेट दादा', साउंड की टीम से है तो ‘साउंड दादा', स्पॉट की टीम से है तो ‘स्पॉट दादा'. यह सुनने में भले अटपटा लगे, लेकिन इसका कारण यह है कि फिल्म के सेट पर इतनी बड़ी टीम होती है कि सबके नाम याद रखना मुश्किल होता है. इसी वजह से यह चलन शुरू हुआ, लेकिन नीरज की यह पहल क़ाबिल-ए-तारीफ है. हालाँकि सबके नाम याद रखना कठिन हो सकता है, पर किसी भी कठिनाई को किसी व्यक्ति के सम्मान से बड़ा नहीं माना जा सकता.
 

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