5 दिसंबर को रिलीज हुई फिल्म 'धुरंधर' ने दस दिनों में देश में 350 करोड़ से ऊपर की कमाई कर कई रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. सिनेमाघरों में जो माहौल है उसे देख अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि यह फिल्म और भी कई रिकॉर्ड तोड़ने जा रही है. लेकिन इस कमाई से ज्यादा बड़ी वह कमाई है जो दर्शकों की प्रतिक्रिया के रूप में यह फिल्म हासिल कर रही है. लोग बेहद उत्साहित हैं इसे पाकिस्तान के आतंकी चेहरे को बेनकाब करने वाली फिल्म बता रहे हैं. इस खुशी में यह उत्साह भी शामिल है कि फिल्म में भारतीय खुफिया एजेंसियों द्वारा भेजा गया एक शख्स पाकिस्तान के माफिया और खुफिया तंत्र में पैठ बना लेता है और भारत को खबर देता रहता है.
एजेंडा फिल्म होना बुरी बात नहीं
जाहिर है, 'धुरंधर' एक एजेंडा फिल्म है. हालांकि इसमें कोई बुरी बात नहीं. हर फिल्म का एक लक्ष्य होता है, एक एजेंडा होता है. उसे ईमानदारी से उस पर खरा उतरना होता है. बिना किसी लक्ष्य या एजेंडे के कोई फिल्म बेकार-बेमानी हो जाती है. एजेंडाविहीनता भी एक एजेंडा ही है. मुश्किल तब आती है, जब आप कोई एजेंडा या मंतव्य लेकर चलते हैं और फिल्म में उसे पूरा करने में नाकाम रहते हैं.
धुरंधर से है एक शिकायत
'धुरंधर' से भी मेरी शिकायत बस यही है. अगर उसका कोई एजेंडा है तो वह फिल्म में पूरा होता नहीं दिखता. अगर कोई एजेंडा नहीं है तो इतनी लंबी फिल्म का कोई औचित्य नहीं दिखता. क्योंकि यह लंबाई बस कथा के बूते हासिल नहीं की गई है, बल्कि बेवजह खिंचे हिंसक दृश्यों और अविश्वसनीय किस्म की फाइटिंग से भी बनती है.
सच्चाई दिखाने का भ्रम पैदा करती है धुरंधर
शुरू में यह फिल्म डॉक्युमेंटरीनुमा सच्चाई दिखाने का भ्रम पैदा करती है. 1999 दिसंबर के कंधार विमान अपहरण कांड के दृश्य से इसकी शुरुआत होती है- यह पहचानने में मुश्किल नहीं होती कि जो दो शख्स शुरू में नजर आ रहे हैं, उनमें एक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल पर केंद्रित चरित्र है और दूसरे विदेश मंत्री जसवंत सिंह हैं.
धीरे-धीरे यह फिल्म बताती है कि पाकिस्तान किस तरह भारत पर चोट पर चोट करता रहा है- संसद भवन पर हमले और मुंबई पर हमले का जिक्र आता है. और फिर भारतीय एजेंसियां तय करती हैं कि पाकिस्तान के भीतर भी अपना ऐसा आदमी हो जो वहां की खबरें दे सके, वहां के सुरक्षा और खुफिया तंत्र में घुसपैठ कर सके.
धुरंधर में राष्ट्रवाद के रंग
यहीं से असली फिल्म शुरू होती है- राष्ट्रवाद के रंग में रंगी हुई- पाकिस्तान की पोल खोलती हुई. यहां तक कोई बुराई नहीं है, लेकिन हम पाते हैं कि भारत से जिस शख्स को वहां भेजा गया है वह वहां के माफिया गिरोहों की लड़ाई का हिस्सा हो चुका है. कराची की ल्यारी पर कब्जे की लड़ाई में बाहुबलियों और नेताओं के बीच की वही कहानी है जो भारत में दिखती है- यानी चुनाव में गुंडों या माफिया गुटों की मदद. लेकिन यह पाकिस्तान में घट रही है- इसलिए शायद लोग ज्यादा खुश हैं.
फिल्म में दिखाए गए स्टीरियोटाइप
दरअसल ऐसी फिल्मों के जो कुछ स्टीरियोटाइप होते हैं- वे सब यहां इस्तेमाल किए गए हैं. मसलन, एक यह कि अधिकारी ईमानदार होते हैं और नेता बेईमान होते हैं. यहां यह दिखाया गया है कि एक नेता ने भारतीय रुपये के प्लेट्स पाकिस्तान को बेच दिए हैं जिससे वह जाली नोट बना रहा है. लेकिन सच्चाई क्या है? जिन बीते दो दशकों की कहानी इस फिल्म में है, उनमें नेताओं की अपनी कमियां और नाकामियां रही हैं, लेकिन किसी पर जासूसी का आरोप नहीं लगा, जबकि इसी दौर में कई अफसर- जिनमें कुछ बड़े नामी अफसर भी रहे- आतंकियों को बचाने और जासूसी करने के आरोप में बाहर किए गए.
दूसरा स्टीरियोटाइप यह होता है कि अपने देश में सारी अच्छाई है और दूसरे देश में गड़बड़ियां ही गड़बड़ियां हैं. तो पाकिस्तान को खलनायक बनाने से भारतीय मानस तुष्ट होता है. यहां भी यह युक्ति आजमाई गई है. लेकिन भारत में आतंक के एक्सपोर्ट का जो खेल पाकिस्तान खेलता रहा है, वह इतना सरल नहीं है जितना इस फिल्म में है और न ही उसमें बलूचों की कोई भूमिका नहीं है. जबकि इस फिल्म के मुताबिक एक बलोच माफिया- जो नेता बन गया है- बलोचों से हथियार खरीद कर मुंबई के हमलावरों के लिए दे रहा है. हैरान करने वाली बात यह है कि जिसे भारतीय जासूस बना कर वहां भेजा गया है, वही याद करता है कि उसने अपने हाथ से कसाब को वह बंदूक पकड़ाई थी जिससे उसने इतने लोगों का खून किया.
कहां आकर भटक गई धुरंधर ?
तो कुल मिलाकर समझ नहीं आता कि भारत पर हमले को लेकर बहुत पीड़ा झेलने और जताने के अलावा पाकिस्तान पहुंचा भारतीय जासूस कर क्या रहा है. उसके रहते साजिशें होती हैं, हमले होते हैं. वह इन हमलावरों से कायदे से बदला तक नहीं ले पाता. वह पाकिस्तान के एक भ्रष्ट नेता की भोली-भाली बेटी से प्रेम करता है और उससे अपने पिता की जासूसी करवाता है. फिर उस भ्रष्ट नेता की मदद के लिए अपने बलोच नेता को मार डालता है. वह उस लड़की को बताता तक नहीं है कि उसकी असली पहचान क्या है. और अंत में इस जासूस को लेकर जो पता चलता है, वह और चकित करने वाला है. कुल मिलाकर अपने बाद के हिस्से में यह भटकी हुई फिल्म है. शुरू में चैप्टरों में बंटे होने से भ्रम होता है कि इसकी कहानी में एकसूत्रता और तथ्य हैं, लेकिन सारे तथ्य बिखरे नजर आते हैं.
राजी Vs धुरंधर
दुनिया भर में जासूसी को लेकर बहुत सारी फिल्में बनी हैं और किताबें लिखी गई हैं. अलग-अलग देशों में दूसरों के 'डीप ऐसेट' होते हैं- यह बात भी आम है. ज्यादा दिन नहीं हुए, जब एक फिल्म आई थी- 'राजी'. इस फिल्म में भी एक भारतीय जासूस पाकिस्तान भेजा जाता है- बस इस फर्क के साथ कि वह लड़की है. आलिया भट्ट ने यह भूमिका की है. उसकी शादी पाकिस्तान के एक सैन्य अधिकारी से होती है. 'धुरंधर' का नायक अनजान लोगों की हत्या की मशीन बनता है, लेकिन आलिया भट्ट अपने घर के लोगों को मारती चलती है. जो लोग उसे बेहद प्यार करते हैं, उस पर बेतरह भरोसा करते हैं, वे सब देशहित के नाम पर मार दिए जाते हैं. फिल्म के अंत में आलिया भट्ट की बहुत लंबी और कातर चीख इस राष्ट्रवाद की व्यर्थता और अमानुषिकता पर एक टिप्पणी की तरह आती है और उसकी स्मृति 'धुरंधर' जैसी कारोबारी फिल्मों का खोखलापन कुछ और जाहिर कर जाती है.
ये फिल्म धुरंधर से बेहतर
60 के दशक में इजरायल की बदनाम खुफिया एजेंसी मोसाद के जासूस इली कोहेन ने सीरिया की राजनीति में बिल्कुल शिखर तक घुसपैठ कर ली थी. उसकी भेजी सूचनाओं की वजह से इजरायल सीरिया युद्ध 5 दिन में खत्म हो गया था. हालांकि एक मामूली सी चूक से वह पकड़ा गया और दुनिया भर के विरोध के बावजूद दमिश्क के चौराहे पर उसे सरेआम फांसी दे दी गई. इस सच्ची कहानी पर भी 'द स्पाई' के नाम पर बनी टेली सीरीज अपने प्रभाव में 'धुरंधर' से बेहतर है.
इन सबसे कुछ अलग स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्म 'म्यूनिख' में 11 इजरायली खिलाड़ियों का बदला लेने के काम में लगाया गया मोसाद का जासूस अपने लंबे और कामयाब अभियान के बावजूद निराश लौटता है- अंत में जैसे उसका देश ही उसे खारिज कर देता है. वह खुद को नायक मानने से इनकार करता है.
तो ऐसी फिल्मों के मुक़ाबले 'धुरंधर' का राष्ट्रवाद कहीं टिकता नहीं. सच तो यह है कि भारतीय राष्ट्र-राज्य की दुनिया भर में जो प्रतिष्ठा और गरिमा है, उसे यह फिल्म बनाने वाले समझ ही नहीं पाते. यही वजह है कि भारतीय खुफिया एजेंसियां कहती हैं कि वे पाकिस्तान में 'हत्या की ऐसी मशीन' भेजेंगे जिसके पास और कोई मकसद नहीं होगा. ख़तरा और सवाल बस यही है कि क्या हम भी ऐसा ही राष्ट्रवाद पसंद करने लगे हैं जिनमें हत्या की मशीनें पाले बदल-बदल कर लाशें गिराए? कुल मिलाकर फिल्म का इकलौता संदेश यह दिखता है कि अभी के भारतीय नेता चोर हैं और आने वाले कल को कोई ईमानदार नेता आएगा तो तस्वीर बदल जाएगी. जाहिर है, फिल्म जिस दौर की है, उसे याद करते हुए इस इशारे को समझना मुश्किल नहीं है. लेकिन यह बात भी फिल्म जोर से नहीं कह पाती.
भारत-पाक टकराव को लेकर कई फिल्में बनी हैं- जाहिर है, सबमें भारतीय राष्ट्रवाद का महिमामंडन है. लेकिन वे फिल्में अपने कारोबारी लटके-झटकों के बावजूद यह काम ठीक से कर पाती हैं. सन्नी देवोल की 'गदर' और 'गदर-2' तत्काल याद आती है.
इन सबके मुक़ाबले 'धुरंधर' सच होने का भ्रम फैलाने के बावजूद कहीं टिकती नहीं. साढ़े तीन घंटे की लंबाई के बावजूद यह पता नहीं चलता कि अंततः इस नायक का क्या हुआ और उसे किस तरह पाकिस्तान के लिए तैयार किया गया था. अब इसका सीक्वल देखकर ही जान सकते हैं कि पूरी कहानी क्या थी. इस लिहाज से बस निर्माता-निर्देशक ही असली 'धुरंधर' साबित हुए हैं जो डबल पैसे से अपना अधपका राष्ट्रवाद बेचेंगे.