धुरंधर ने कमाया नाम, लेकिन होमबाउंड, धड़क  2 समेत इन 5 फिल्मों का भी बेहतरीन काम

ऑस्कर 2026 की दौड़ में करण जौहर की होम बाउंड शामिल हो गई है, जो पिछले दिनों खूब चर्चा में रही है. 

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ऑस्कर में होम बाउंड
नई दिल्ली:

यह सच है कि इस साल सिनेमाघरों में उन फिल्मों की धूम रही जिनमें बहुत ऊंची आवाज़ में प्रेम, राष्ट्रवाद या अतीत का मोह दिखता है. ‘धुरंधर', ‘छावां' या ‘सैयारा' जैसी फिल्मों की कामयाबी यही बताती है. भव्य सेट, बड़े सितारों और शानदार दृश्यों के साथ एक महावृत्तांत रचने की कोशिश के बीच बनी इन फिल्मों ने बॉक्स ऑफ़िस पर भी बड़ी कमाई की. लेकिन इनके समानांतर कई ऐसी फिल्में रहीं जो छोटी-छोटी जीवन स्थितियों के बीच किसी मार्मिक सच को पकड़ने में लगी रहीं. ऐसी फिल्में जो हमारे समय और समाज के उन बेहद प्रत्यक्ष, लेकिन हमारे सार्वजनिक विमर्श में अदृश्य मुद्दों पर उंगली रखती हैं. 

ऑस्कर की दौड़ में शामिल होम बाउंड

ऐसी ही एक फिल्म 'होम बाउंड' अब ऑस्कर की दौड़ में शामिल है. यह दो दोस्तों- शोएब और चंदन की कहानी है- एक मुस्लिम है और एक दलित. दोनों सरकारी नौकरी पाने की कोशिश में हैं- सिपाही बनने की प्रतियोगिता परीक्षा में बैठे हैं और उम्मीद है कि निकल जाएंगे. लेकिन नतीजों की तारीख़ खिसकती जाती है और देश और समाज में दोनों के इम्तिहान जारी रहते हैं. उन्हें समाज की अवमानना झेलनी पड़ती है, कई बार अपनी पहचान छुपानी पड़ती है, अपनों का दबाव भी झेलना पड़ता है और अंततः एक समय ऐसा आता है जब दोनों सूरत में दिहाड़ी की मजदूरी करने के लिए जाने को मजबूर होते हैं. इसके पहले  शोएब को एक प्राइवेट नौकरी मिलती है और वहां वह अपनी होशियारी दिखाकर सेल में भी सिक्का जमा लेता है. मगर एक पार्टी में भारत-पाक मैच के बीच उस पर की जा रही छींटाकशी उसे रास नहीं आती और वह नौकरी छोड़ देता है. 

दरअसल हाशिए के हिंदुस्तान की छुपाई जा रही यह कहानी कुछ और फिल्मों में भी आती रही. ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले के जीवन और संघर्ष पर आधारित फिल्म 'फुले' ने भले बहुत पैसे नहीं कमाए, लेकिन उसने बड़ी बहस पैदा की, उस हूक की याद दिलाई जो बहुत सारे तबकों की छाती में अरसे से बसी हुई है. ज्योतिबा फुले अपने विचारों की वजह से घर छोड़ने को मजबूर होते हैं, पत्नी के साथ मिलकर लड़कियों के लिए स्कूल चलाते हैं, समाज में जाति-पांति के विरुद्ध मुहिम चलाते हैं. वह एक ख़ामोश क्रांति है जिससे वर्चस्ववादी तबके आगबबूला हैं. यह फिल्म भले परदे पर नहीं चली, लेकिन ख़ूब सराही गई.

इसी तरह धड़क 2 भी दलित विमर्श पर केंद्रित एक बहुत संवेदनशील फिल्म है जो इसी साल आई. हालांकि ये दक्षिण भारत की एक फिल्म का रीमेक है, लेकिन हिंदी में भी बहुत करीने से बनाई गई है. फिल्म में लॉ पढ़ने आया एक छात्र क्या कुछ झेलता है और कैसे अपनी वर्गीय सीमाओं को पहचानते हुए उसे तोड़ने की कोशिश करता है- यह कहानी बहुत संजीदगी से कही गई है. फिल्म को देखते हुए रोहित वेमुला की याद आती है. फिल्म का एक किरदार जैसे उसी की तर्ज पर गढ़ा गया है.

सुपरब्वॉय ऑफ मालेगांव भी है सपनों की कहानी

इस सिलसिले में एक और फिल्म ‘सुपरब्वॉय ऑफ मालेगांव' को याद किया जा सकता है जिसमें एक छोटे से शहर के बहुत मामूली से लड़कों के बड़े सपनों की कहानी है. फिल्मों में काम करने का ख्वाब देखने वाले इन लड़कों ने अपने ही शहर में रहते हुए अपनी फिल्में बनाईं, अपना सपना पूरा किया. इस सच्ची कहानी को बहुत प्यारे ढंग से इस फिल्म में समेटा गया है.

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इस कड़ी में दो और फिल्मों की याद दिलाने की ज़रूरत महसूस हो रही है. एक जॉली एलएलबी 3 और दूसरी तन्वी द ग्रेट. इंसाफ़ के सवाल और इंसानियत की ताक़त के अलग-अलग पहलुओं को उकेरती ये फिल्में आम फिल्मों से काफी अलग हैं. इस सूची में पिछले साल बनी एक फिल्म को डालने की इच्छा हो रही है- अरण्य सहाय की बनाई फिल्म ‘ह्यूमन्स इन द लूप' झारखंड के एक गांव की पृष्ठभूमि पर है और बताती है कि किस तरह हमारे पूर्वग्रह हमारी वैज्ञानिक चेतना पर भी हावी हो रहे है. 

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फिल्म में एक तरफ जंगलों और पहाड़ों की गोद में बसे गांवों में पल रही बहुत आम ज़िंदगी है और दूसरी तरऱफ एक एआई प्रोजेक्ट है जो सबकुछ को ‘मैप' करता हुआ कृत्रिम मेधा की स्मृति में दर्ज करा रहा है. इस स्मृति में हमारे जाने-अनजाने वे मानवीय पूर्वग्रह और भूलें भी शामिल हैं जो हम कृत्रिम मेधा के भीतर स्थानांतरित कर रहे हैं. 

ये वे फिल्में हैं जिन्होंने सिनेमा का व्याकरण अगर बदला नहीं है तो उसे आम जन की बोली-बानी के करीब ला रखा है. ये वे फिल्में हैं जो महानता के विमर्श में नहीं फंसी हैं, जो कारोबारी तो हैं लेकिन कारोबार का जिन्हेने इतन बोझ नहीं उठा रखा है कि उसकी वजह से वे सरोकार भूल जाएं, ये वे फिल्में हैं जो कई हमें हमारी मनुष्यता भी लौटाती हैं, कई बार हमारा हमसे ही परिचय कराती हैं. जिस समय तरह-तरह की फाइलों वाली प्रचारवादी फिल्में बन रही हैं, जब खोखले दर्प के मारे चीखते हुए राष्ट्रवाद को बेचा जा रहा है उस समय हिंदुस्तान की सूनी सड़क पर चल रहे दो लड़कों की कहानी ऑस्कर के दरवाज़े तक जा पहुंची है- यह उस समानांतर सिनेमा की पहचान है जिसे फिलहाल कोई पहचान नहीं रहा.

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