धर्मेन्द्र और फिल्म ‘आतंक’ : 30 साल बाद फिर चर्चा में जेसु

धर्मेन्द्र आज अपने स्वास्थ्य से जुड़ी अफवाहों को लेकर फिर सुर्खियों में हैं और इसी बहाने उनकी कम चर्चित फिल्मों की यादें ताजा हो रही हैं.

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धर्मेन्द्र और फिल्म ‘आतंक’ : 30 साल बाद फिर चर्चा में जेसु
नई दिल्ली:

धर्मेन्द्र आज अपने स्वास्थ्य से जुड़ी अफवाहों को लेकर फिर सुर्खियों में हैं और इसी बहाने उनकी कम चर्चित फिल्मों की यादें ताजा हो रही हैं. तीस साल पहले रिलीज़ हुई फिल्म 'आतंक' और उसमें उनका निभाया किरदार 'जेसु' एक बार फिर चर्चा में है. एक मछुआरा, जो समुद्र से और परिस्थितियों से लड़ता है, लेकिन हार नहीं मानता.

धर्मेन्द्र का ‘ही-मैन' अंदाज, बाकी किरदार साइड में

निर्माता प्रेम लालवानी की यह फिल्म मछुआरा समुदाय और उनके संघर्षों पर आधारित थी और  लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का संगीत एक्शन दृश्यों को जानदार बना रहा था. धर्मेंद्र के साथ विनोद मेहरा, गिरीश कर्नाड, अमजद खान और हेमा मालिनी जैसे कलाकार थे, लेकिन अधिकांश स्क्रीन स्पेस धर्मेन्द्र के हिस्से में गया. उस दौर में स्क्रिप्ट अक्सर हीरो के इर्द-गिर्द ही लिखी जाती थी.

जेसु की साधारण पृष्ठभूमि, असाधारण जज्बा

फिल्म में जेसु अनाथ है और दबंग अल्फांजो के शोषण के खिलाफ मछुआरों की तरफ से आवाज उठाता है. उसका संवाद, 'मैं जानता हूं मां के प्यार के बगैर बच्चा कैसे जीता है' दर्शकों को छूता है. भाई की मौत के बाद शार्क को मारने का उसका संकल्प, 'मां कसम, चाहे जान चली जाए...' धर्मेन्द्र की ‘ही-मैन' छवि को और मजबूत करता है. लाल साड़ी पहनी हुई है।हेमा मालिनी को कंधे पर उठाने वाला दृश्य भी उसी छवि का हिस्सा है.

क्लाइमेक्स था उस दौर का रोमांच, आज का ओवरड्रामा

धर्मेंद्र की शार्क से भिड़ाई और शार्क से टकराकर हेलीकॉप्टर का क्रैश वाला क्लाइमेक्स आज ओवर ड्रामेटिक लग सकता है, लेकिन फिल्म रिलीज के समय इसे साहसिक माना गया था. बिना तकनीक के ऐसे एक्शन उस समय के सितारों की असल मेहनत और काम के प्रति लगन दिखाते हैं, यह वजह है कि धर्मेंद्र जैसे सितारे आज भी लोगों के दिलों में वही जगह रखते हैं जो वह अपने करियर के चरम पर रखते थे.

धर्मेन्द्र-हेमा की स्क्रीन केमिस्ट्री

हेमा मालिनी की भूमिका फिल्म आधी से ज्यादा बीतने के बाद शुरू होती है, लेकिन दोनों की सहज केमिस्ट्री फिल्म को भावनात्मक टच देती है. कहानी प्रेम के बजाय सामाजिक संघर्ष और समुदाय पर केंद्रित रहती है.

विरासत, तकनीकी रूप से सीमित, पर यादों में दर्ज

आतंक को आज क्लासिक नहीं कहा जाएगा, लेकिन यह उस दौर की ईमानदार सिनेमाई कोशिशों और स्टार सिस्टम को दिखाती है. कहानी भले ही अल्फांजो और शार्क के बीच भटके, लेकिन जेसु का जज्बा और धर्मेन्द्र का फिल्म के प्रति समर्पण दर्शकों को याद रहता है. यह फिल्म याद दिलाती है कि तकनीक बाद में आती है, सिनेमे का जुनून पहले. यह फिल्म उस वर्ग की आवाज उठाने के लिए जानी जाएगी, जिसका कोई नही है और यही तो भारतीय सिनेमा की खासियत रही है. धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन अपनी इन्हीं भूमिकाओं की वजह से आज भी भारत के सुपरस्टार हैं.

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