Bihar Election 2025: एनडीए के छोटे दलों की बड़ी मांग
बिहार विधानसभा चुनाव से पहले सत्तारूढ एनडीए में छोटे खिखाड़ियों की मांगों से कैसा है राजनीति माहौल और क्या है उसकी एकता का राज बता रहे हैं अजीत कुमार झा.

बिहार में गंगा नदी जीवन और प्रतीक दोनों रूपों में बहती है. इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव का मंच तैयार है. यह चुनाव एक तूफानी बादल की तरह है, जो वादों और खतरों से भरा हुआ है. बिहार में सत्तारूढ़़ एनडीए गठबंधन अपनी ताकत और समझदारी से बना है. वह अब एक मोड़ पर है. इसके छोटे सहयोगियों चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) और जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेकुलर) अब छोटी भूमिकाओं से संतुष्ट नहीं हैं. वे अब और ज्यादा हिस्सेदारी चाहते हैं. इससे एनडीए का संतुलन खतरे में है.
क्या एनडीए में सबकुछ ठीक-ठाक है
राम विलास पासवान के बेटे चिराग पासवान पिता की विरासत को एक जलती मशाल की तरह थामे हुए हैं. उनकी लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) का राज्य की दुसाध या पासवान जाति में अच्छा-खासा दखल है. चिराग की पार्टी ने 2024 के लोकसभा चुनाव में उन सभी पांच सीटों पर जीत दर्ज की थी, जो सीट बंटवारे में उन्हें मिली थीं. इसके बाद से चिराग ने 2025 के विधानसभा चुनाव के लिए अधिक सीटों की मांग तेज कर दी. वो 40 सीटें मांग रहे हैं. उनका कहना है कि अगर उनकी मांग नहीं मानी गईं तो वो सभी 243 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेंगे.
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेकुलर) का महादलित समुदाय, खासकर मुसहर जाति का प्रतिनिधित्व करती है. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में गया सीट पर मिली जीत के बाद मांझी को नई ताकत मिली है. वो गया और औरंगाबाद जिले की सभी सीटों पर दावेदारी कर रहे हैं. 79 साल की उम्र में मांझी कोई नौसिखिया नहीं हैं. वे जानते हैं कि एनडीए के जातिगत समीकरण में उनकी मौजूदगी कितनी अहम है. वे इसे एक कुशल शतरंज खिलाड़ी की तरह इस्तेमाल करते हैं, जैसे कोई खिलाड़ी घोड़ा सही खाने पर रखता हो.
लोजपा (रामविलास) और हम (सेक्युलर) की ये मांगें केवल दिखावा भर नहीं हैं. ये उस बदलते माहौल की हलचल है, जहां छोटे सहयोगी दल, जो पहले भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और जनता दल (यूनाइटेड) के आगे-पीछे घूमकर ही खुश थे, वो अब अपनी जगह को नया रूप देना चाहते हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन मांगों के सामने बीजेपी और जेडीयू कितना झुकते हैं.

साल 2024 के लोकसभा चुनाव में सभी पांच सीटें जीतने के बाद से चिराग पासवान के हौंसले बलुंद हैं.
बीजेपी और जेडीयू की दोस्ती
बीजेपी और जेडीयू, एनडीए के दो बड़े सहयोगी, ऐसे पुराने दोस्तों की तरह हैं, जिन्हें एक-दूसरे की जरूरत तो है, लेकिन कभी-कभी आपस में तनाव भी महसूस करते हैं. बीजेपी, अपने हिंदुत्व और शहरों में मजबूत पकड़ के साथ, ऊंची जातियों और गैर-यादव ओबीसी में लोकप्रिय है. वहीं जेडीयू का आधार कुर्मी और अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) में है, यह जो छोटी जातियों का एक महत्वपूर्ण वोट बैंक है.
साल 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए ने 243 में से 125 सीटें जीतीं थीं. बीजेपी को 19.46 फीसदी वोट के साथ 74 सीटें मिली थीं. वहीं जेडीयू ने 15.39 फीसदी वोट के साथ 43 सीटें जीती थीं. उस समय चिराग पासवान की एलजेपी ने एनडीए से अगल होकर चुनाव लड़ा था. उसने कई सीटों पर जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार उतारे थे, इससे नीतीश कुमार की पार्टी कमजोर हुई. एलजेपी ने 135 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन उसे सफलता केवल बेगूसराय की मटिहानी सीट पर ही मिली थी. इस प्रदर्शन के बाद चिराग के चाचा पशुपति कुमार पारस ने इसे राजनीतिक आत्महत्या बताया था. इसके बाद एलजेपी दो हिस्सों में बंट गई, एक का नेतृत्व चिराग के पास है तो दूसरे का उनके चाचा पारस के पास है.
साल 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने शानदार प्रदर्शन किया. बीजेपी और जेडीयू ने 12-12 सीटें, एलजेपी (राम विलास) ने पांच और हम ने एक सीट जीती. एनडीए ने बिहार की 40 में से 30 सीटें अपनी झोली में डाली थीं. विपक्षी इंडिया गठबंधन ने नौ सीटें जीती थीं. इस परिणाम ने यह बताया दिया कि एनडीए का दबदबा अब पहले जैसा नहीं है. बीजेपी, अपनी संगठनात्मक ताकत के बावजूद सहयोगियों पर निर्भर है, जिससे वह सत्ता विरोधी लहर और आरजेडी की MY-BAAP (मुस्लिम-यादव-बहुजन-अगड़ा-आधी आबादी-गरीब) रणनीति का मुकाबला कर सके. नीतीश कुमार नौवीं बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हैं, वो ताकत भी हैं और बोझ भी. उनकी सेहत और बयानबाजी ने उनके भविष्य को लेकर सवाल खड़े किए हैं. बीजेपी का नीतीश को मुख्यमंत्री पद का चेहरा न बताना गठबंधन में तनाव बढ़ा रहा है.
चिराग की मांगें एनडीए के संतुलन को बिगाड़ सकती हैं. साल 2020 में उनकी बगावत ने दिखाया था कि वे जेडीयू को नुकसान पहुंचा सकते हैं. अगर अब वे 40 सीटें मांगते हैं या अकेले चुनाव लड़ते हैं तो बीजेपी के सामने मुश्किल होगी. ऐसे में वह या तो जेडीयू को नाराज कर चिराग को सीटें दें या सख्त रहकर चिराग का दलित वोट बैंक खो दे. मांझी की गया और औरंगाबाद की सीटों की मांग ने मामले को और पेचीदा बना दिया है. इन दोनों जिलों में मांझी की हम की मजबूत पकड़ है. मांझी को नाराज करने से एनडीए का महादलित समर्थन टूट सकता है.
चुनावी आंकड़ों का अंकगणित
इस दांव को समझने के लिए आइए 2020 के विधानसभा चुनाव के आंकड़ों पर नजर डालते हैं.
2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए का गणित
पार्टी | जीती सीटें | वोट फीसद (%में) | ||
बीजेपी | 74 |
| ||
जेडीयू | 43 | 15.39 | ||
हम | 04 | 0.89 | ||
वाआईपी | 04 | 1.52 | ||
स्रोत: चुनाव आयोग |
लोजपा (राम विलास) ने यह चुनाव अकेले लड़ा था. उसके केवल मटिहानी सीट पर ही सफलता मिली थी. लेकिन लोजपा ने इस चुनाव में 5.66 फसदी वोट हासिल किए थे. लोजपा का एकमात्र विधायक भी बाद में जेडीयू में शामिल हो गया था.
2024 का लोकसभा चुनाव
पार्टी | जीती सीटें | वोट फीसद (%में) |
बीजेपी | 12 | 20.95 |
जेडीयू | 12 | 18.89 |
लोजपा (रामविलास) | 05 | 6.59 |
हम (सेक्युलर) | 01 | 1.16 |
ये आंकड़े एनडीए की ताकत और कमजोरी दोनों दिखाते हैं. बीजेपी और जेडीयू अपने सहयोगियों के जाति-आधारित वोट बैंक पर निर्भर हैं, ताकि जीतने वाला गठबंधन बना सकें. 2024 में चिराग को मिले 6.59 फीसदी वोट मांझी की गया में मिले 1.16 फीसदी वोट केवल आंकड़े भर नहीं हैं. ये आंकड़े एनडीए की सामाजिक रणनीति का आधार हैं.
क्या गठबंधन सहयोगियों को संतुष्ट कर पाएगी बीजेपी और जेडीयू
नवंबर 2025 में एनडीए की जीत इस बात पर निर्भर करेगी कि वह अपने सहयोगियों को संतुष्ट कर सके. खबरों के मुताबिक, एक संभावित सीट बंटवारा है- जेडीयू को 102, बीजेपी को 101, एलजेपी (राम विलास) को 20, हम को 10 और उपेंद्र कुशवाहा के राष्ट्रीय लोक मोर्चा को 10 सीटें. ऐसे में चिराग की 40 सीटों की मांग और मांझी की गया और औरंगाबाद की मांग से बातचीत मुश्किल होगी. एनडीए गठबंधन का मुख्य आधार होने की वजह से बीजेपी को सावधानी बरतनी होगी. साल 2024 में चिराग को हाजीपुर सहित पांच लोकसभा सीटें देना एक शानदार कदम था, जिसने उनकी वफादारी सुनिश्चित की, लेकिन विधानसभा चुनाव का बड़ा दायरा एक अलग रणनीति की मांग करता है.

केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी गयाजी और औरंगबाद की सभी विधानसभा सीटें मांग रहे हैं.
अगर बीजेपी चिराग और मांझी को ज्यादा सीटें देती है, तो जेडीयू नाराज हो सकता है, जो नीतीश कुमार की 100 सीटों की मांग के साथ अपनी अहमियत बनाए रखना चाहता है. अगर बीजेपी सख्त रुख अपनाती है, तो चिराग का अकेले चुनाव लड़ने की धमकी से दलित वोटों को बांट सकती है, जिससे आरजेडी के नेतृत्व वाला महागठबंधन फायदा उठा सकता है. महागठबंधन को मुस्लिम, यादव और 2024 की औरंगाबाद जीत के बाद कुशवाहा वोटरों का समर्थन मिल रहा है. साल 2020 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी का 23.11 फीसदी वोट शेयर और चिराग के चाचा पशुपति कुमार पारस को शामिल करना दिखाता है कि वे एनडीए के दलित वोट बैंक को तोड़ना चाहते हैं. एनडीए की ताकत उसके गठबंधन में है, जो ऊँची जातियों (बीजेपी), कुर्मी और अति पिछड़ा वर्ग (जेडीयू), दुसाध (एलजेपी) और महादलित (हम) को जोड़ता है. लेकिन यही विविधता उसकी कमजोरी भी है. चिराग का नीतीश की कानून-व्यवस्था पर छिपा तंज गठबंधन में तनाव को दिखाता है. मांझी की खास सीटों की मांग बीजेपी को मजबूत सीटें छोड़ने पर मजबूर कर सकती है. इससे उसका खुद का स्कोर कमजोर हो सकता है. इस बीच, विपक्ष का बेरोजगारी और वोटर लिस्ट विवादों पर ध्यान सत्ता विरोधी लहर को बढ़ा सकता है, खासकर युवाओं में.
बिहार में राजनीति सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं है, यह जाति, इतिहास और लोगों की चाहत से बुनी एक रंगीन चादर है. चिराग पासवान, अपने फिल्मी अंदाज और युवा जोश के साथ, सपना देखते हैं कि उनके पिता की विरासत एक बड़े राजनीतिक खानदान में बदल जाए. वहीं जीतन राम मांझी, उम्रदराज लेकिन दृढ़, गया की पहाड़ियों में अपने महादलित समुदाय के लिए एक मजबूत जगह बनाना चाहते हैं. बीजेपी और जेडीयू अनुभवी यात्रियों की तरह, जानते हैं कि सत्ता का रास्ता समझौतों से बनता है, लेकिन हर कदम पर गलती का खतरा है. नवंबर के करीब आते ही एनडीए को इस जटिल रास्ते पर सावधानी से आगे बढ़ना होगा. चिराग की सभी 243 सीटों पर लड़ने की धमकी शायद एक दांव हो, लेकिन इसमें सच होने की ताकत है. मांझी की मांगें भले ही छोटी हों, लेकिन कम असरदार नहीं हैं. बीजेपी की संगठनात्मक ताकत और नीतीश की लोकप्रियता के साथ जेडीयू इन दबावों को झेल सकते हैं, बशर्ते वे एकजुट रहें. बिहार में, जहां गठबंधन गंगा की धारा की तरह बदलते हैं, कुछ भी पक्का नहीं है. ऐसे में एनडीए की जीत इस बात पर टिकी है कि क्या वह अपने सहयोगियों की महत्वाकांक्षाओं को एकजुटता में बदल पाएगा, या लालच और घमंड से गठबंधन बिखर जाएगा.
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