बिहार: नीतीश कुमार के साये में बीजेपी
'डबल इंजन' की सरकार चलाने का दावा करने वाली बीजेपी बिहार में जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) की जूनियर पार्टनर बनकर क्यों रह गई है, बता रहे हैं अजीत कुमार झा,

बिहार की विशाल भूमि, जो तवे की तरह फैली हुई है, जहां गंगा और उसकी सहायक नदियां (घाघरा, गंडक, कोसी, कमला, सोन और बागमती) सरसों और धान के खेतों, मालदा आम और शाही लीची के हरे-भरे खेतों और बागों के बीच थके हुए यात्री की तरह बहती हैं. लेकिन वहां की राजनीति सीधे रास्ते पर नहीं चलती है. वहां गठबंधनों का जाल है. ट्रेनें शहरों को जोड़ती हैं और प्रगति की निरंतरता की याद दिलाती हैं. भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 'डबल इंजन' सरकार का नारा, जो केंद्र (नई दिल्ली) और राज्य (पटना) में एक साथ शक्ति का प्रतीक है. यह नारा बिहार में एक मजाक जैसा लगता है. पिछले दो दशक में बीजेपी कभी भी वह इंजन नहीं रही जो ट्रेन को आगे खींचे, वह नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) के इंजन के पीछे एक वफादार डिब्बा बनकर रही है. यही बीजेपी की सबसे बड़ी समस्या है, राष्ट्रीय स्तर की एक पार्टी दो दशक से जूनियर पार्टनर की भूमिका में है. वह भी बिहार में जहां वफादारी मानसून की गंगा की तरह बदलती रहती है.
बीजेपी ने पकड़ी गठबंधन की राह
नीतीश कुमार 2005 में पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने. इससे पहले लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की हुकूमत थी, जिसे लोग 'जंगल राज' कहते थे. नीतीश ने एक सुधारक के रूप में काम शुरू किया. सड़कें बनीं, गांवों में बिजली आई, अपराधियों को जेल भेजा गया और कानून-व्यवस्था बेहतर हुई. शासन का एक रूप उभरा. इसमें बीजेपी ने मौका देखा और जेडीयू के साथ गठबंधन किया. इससे नीतीश के विकास के प्लान को ताकत मिली. साल 2010 में दोनों ने मिलकर बड़ी जीत हासिल की, एनडीए को भारी बहुमत मिला. लेकिन असल इंजन नीतीश कुमार ही थे. उनकी 'सुशासन बाबू' की छवि ने गठबंधन को आगे बढ़ाया, जबकि बीजेपी सहायक की भूमिका में ही रही. वो डिप्टी सीएम और मंत्री पदों से ही संतुष्ट रही. बिहार की राजनीति स्थानीय थी, जो जाति के गणित और नीतीश की कुर्मी, कोइरी, अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), और महादलित वोटों को संभालने की कला पर टिकी थी.

नीतीश कुमार ने छोड़ा साथ
साल 2013 में जब नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने की इच्छा जताई तो यह गठबंधन टूट गया. नीतीश को लगा कि यह बिहार के सांप्रदायिक माहौल के लिए सही नहीं है. उन्होंने गठबंधन छोड़ा और 2015 में आरजेडी से हाथ मिला लिया. इस 'महागठबंधन' ने विधानसभा चुनाव में बीजेपी को हरा दिया. इस चुनाव का नारा था 'बिहारी बनाम बाहरी'. लेकिन 2017 तक मतभेद बढ़ गए. नीतीश को लालू के भ्रष्टाचार के मामले पसंद नहीं आए और वे फिर एनडीए में लौट आए. बिहार की जाति आधारित जटिल राजनीतिक व्यवस्था के लिए नीतीश जरूरी थे, लेकिन उनकी अनिश्चितता हर गठबंधन को जोखिम भरा बना देती है.

बिहार में बीजेपी ने 2005 की 55 सीटों के मुकाबलें अपने सीटों की संख्या 74 कर ली है.
साल 2020 के चुनाव ने यह साफ कर दिया: बीजेपी ने जेडीयू से ज्यादा सीटें जीतीं (74 के मुकाबले 43) लेकिन नीतीश फिर से मुख्यमंत्री बने. यह बात बीजेपी कार्यकर्ताओं को नागवार गुजरी. 'डबल इंजन' का नारा, जो एकता दिखाने के लिए था, असल में कमजोरी दिखा गया. एक जानकार ने बताया कि जेडीयू-बीजेपी की जोड़ी में अब 'भाप' नहीं बची है, क्योंकि शासन में कमी और जनता का गुस्सा बढ़ गया था. इस व्यवस्था में बहुत कुछ कड़वा है. दूसरे राज्यों में बीजेपी मालिक की तरह है, गठबंधन बनाती है और नेता चुनती है. उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को राष्ट्रीय नेता बनाया, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को आगे बढ़ाया. लेकिन बिहार बीजेपी की अनसुलझी पहेली है. उसके पास सत्ता है, लेकिन अधिकार नहीं, वोट हैं, लेकिन जड़ें नहीं, एक प्रधानमंत्री तो है, लेकिन मुख्यमंत्री का कोई चेहरा नहीं जो जिसमें उसे उम्मीदें नजर आएं.
सुशील मोदी की कमी
बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी का 13 मई 2024 को निधन हो गया था. यह बीजेपी के लिए एक दुखद मोड़ था. बीजेपी ने बिहार में अपना सबसे बड़ा चेहरा खो दिया था. सुशील केवल नाम के ही नहीं स्वभाव के भी सुशील थे, वो आरएसएस जुड़े और जेपी आंदोलन से निकले नेता थे. वो तीन दशक तक बिहार में बीजेपी का चेहरा रहे. उन्होंने एनडीए की नींव रखी. कई बार उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री रहे. उन्होंने नीतीश कुमार के साथ गठबंधन को मजबूत करने का काम किया. उनके जाने से एक बड़ी कमी यह हुई कि उनकी तरह का कोई बड़ा नेता नहीं बचा, जो गठबंधन की समस्याओं को सुलझा सके. सुशील का जाना केवल एक शख्स के चले जाने से ज्यादा था. सुशील ने बीजेपी और नीतीश के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाई. वे छाया में रहकर गठबंधन को साधते थे, जैसे एक ईमानदार हिसाब-किताब करने वाला, जो कभी बड़े पद की चाह नहीं रखता. उनके बिना बीजेपी की कमजोरी साफ दिख रही है. नई पीढ़ी के बीजेपी नेता नीतीश कुमार की कठोर जिजीविषा से मेल नहीं खाते. नीतीश मिश्र (पूर्व कांग्रेस मुख्यमंत्री डॉ. जगन्नाथ मिश्रा के बेटे, जो ब्रिटेन से पढ़े हैं और शिष्ट भी हैं) या नित्यानंद राय (मेहनती लेकिन प्रभावशाली नहीं) अभी सिर्फ सीखने वाले हैं, बड़े नेता नहीं. दिलीप जायसवाल और सम्राट चौधरी ओबीसी से हैं, लेकिन उनकी विश्वसनीयता अभी कम है. अश्विनी चौबे और रविशंकर प्रसाद जैसे नेता 70 साल के करीब हैं और ऊंची जाति से होने के कारण मुख्यमंत्री पद के लिए सही नहीं माने जाते. राजीव प्रताप रूड़ी या शाहनवाज हुसैन (अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री) जैसे युवा नेता भी बिहार में मजबूत पकड़ नहीं बना सके हैं. ये सभी नीतीश कुमार के सामने फीके हैं, जिनमें विनम्रता और कठोर जीवटता का अनोखा मेल है.
नरेंद्र मोदी ही सबसे बड़ा सहारा
बिहार में बीजेपी बार-बार नरेंद्र मोदी की ओर ही देखती है. वो एक मशाल की तरह है, वो ऐसी गुफा में रोशनी देते हैं, जिसका नक्शा उसे बनाना नहीं आता. हर चुनावी रैली प्रधानमंत्री के आकर्षण पर भीड़ आती है, पार्टी की अपनी ताकत पर नहीं. बिहार में बीजेपी एक परिवार से ज्यादा एक फ्रेंचाइजी जैसी है, एक ब्रांच ऑफिस की तरह न कि हेडऑफिस की तरह. 'मोदी फैक्टर' ही एकमात्र हथियार है, जो भक्तों को एकजुट करता है. बीजेपी ने प्रधानमंत्री मोदी की छवि पर भरोसा बढ़ाया और उनकी रैलियों को 'तोप के गोले' की तरह इस्तेमाल किया. लेकिन यह भरोसा एक कमजोरी दिखाता है: जहां राजनीति बहुत निजी और जाति पर आधारित है, वहां राष्ट्रीय स्टारडम से स्थायी जड़ें नहीं जम सकतीं. बिहार को एक स्थानीय नेता की जरूरत है. उसके बिना बीजेपी नीतीश पर ही निर्भर है, भले ही उनकी लोकप्रियता घट रही हो.

पीएम नरेंद्र मोदी की मां के अपमान के विरोध में धरना देते बिहार बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता.
इतना सब होने के बाद भी बीजेपी कभी बिहार की राजनीति से गायब नहीं रही. साल 2005 के बाद बने हर गठबंधन में उसकी जरूरत पड़ी है. उसकी संगठन शक्ति, अनुशासित कार्यकर्ता और साफ विचारधारा ने केसरिया ज्वाला को जिंदा रखा. लेकिन 2025 का विधानसभा चुनाव नजदीक आने के साथ उसकी बड़ी समस्या एक बार फिर सामने है: खुद ड्राइविंग सीखे बिना वह आखिर तक कितने दिन नीतीश कुमार की गाड़ी पर सवार रहेगी. नीतीश का बार-बार रुख बदलना, कभी मोदी के खिलाफ तो कभी एनडीए का साथ देना, पार्टी को हमेशा बातचीत में उलझाए रखता है. इसके बाद भी वे उनसे क्यों चिपके हैं? क्योंकि बिहार की जनता, जो यादव (आरजेडी का आधार), अति पिछड़ा वर्ग और ऊंची जाति (बीजेपी का कोर वोट बैंक) में बंटी है, गठबंधन को अकेले चलने से ज्यादा पसंद करती है. अकेले बीजेपी कमजोर पड़ सकती है, लेकिन नीतीश के साथ उसे सबको साथ लेने का दिखावा मिलता है. लेकिन इसकी कीमत यह है कि वह अपनी आजादी खो देती है. 'डबल इंजन' एक ही रास्ते पर चलता है, जो जेडीयू की मर्जी से तय होता है. 2025 का विधानसभा चुनाव नजदीक आने के साथ ही नीतीश के रिटायरमेंट और खराब सेहत की अफवाहें अनिश्चितता बढ़ा रही हैं. दिल्ली में बीजेपी नेता अमित शाह के साथ बैठकर सीटों का बंटवारा और प्लान बना रहे हैं. पार्टी ज्यादा सीटें चाहती है, शायद जेडीयू के बराबर. बीजेपी 2020 में हुए फायदे का इस्तेमाल करने की कोशिश में है, लेकिन जेडीयू पर निर्भरता का साया उसके ऊपर बना हुआ है.
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