यूपी का गठबंधन तो पहले ही चरमरा गया था. 150 दिन की सपा और बसपा की दोस्ती में साफ़ लग रहा था कि घोर मजबूरी उन्हें साथ लाई है. तो पहले एक ओढ़ी हुई अच्छाई के तहत मायावती का कहना कि हम साथ नहीं लड़ेंगे लेकिन अखिलेश ने सम्मान दिया. और अब जब वो कह रही हैं कि अखिलेश ने चुनाव के बाद फ़ोन नहीं किया, तो कहां गई वो ओढ़ी हुई अच्छाई. इससे 3 सवाल उभरते हैं. 1- क्या माया-अखिलेश गठबंधन मजबूरी की कमज़ोर नींव पर टिका था? 2- माया को गठबंधन से फ़ायदा हुआ फिर भी सपा को ज़िम्मेदार ठहराया, क्या माया पर भरोसा करना अखिलेश की राजनीतिक भूल थी? 3- दुश्मनी से दोस्ती और वापस दुश्मनी की ओर... क्या पड़ेगा इसका ज़मीनी स्तर पर प्रभाव?