इस दौर में विकास का सीधा-सपाट मतलब हो गया है- बड़े-बड़े मॉल, बड़ी-बड़ी योजनाएं, बड़ी और चौड़ी सड़कें. लेकिन ये सपाट विकास क्या इस देश की विविधता से साथ न्याय करता है? ये सवाल हमारा नहीं, उन तमाम तबकों का है जो विकास की इस आंधी में ख़ुद को उखड़ता पा रहे हैं, उन पहाड़ों का भी है जिन्हें लगातार खोखला किया जा रहा है- ये बताते हुए कि इससे वहां चमक आएगी, बाज़ार आएगा, अमीरी आएगी. कुछ हद तक ये ग़लत भी नहीं है. लेकिन इस अंधाधुंध होड़ में हम क्या कुछ देख भी रहे हैं. पहाड़ों की ऊंचाइयों तक पहुंच बनाने के लिए हम सड़कें चौड़ी कर रहे हैं और इसके लिए पहाड़ों की ढालों को धमाकों से उड़ा दे रहे हैं. लेकिन इस सबमें पहाड़ की क्या हालत हो जा रही है? उस असली पहाड़ की जो अपनी बनावट में जितना जटिल है, उतना ही प्रकृति और पर्यावरण के लिए ज़रूरी भी.