हमारे समाज में महिलाएं हमेशा से अदृश्य श्रमिक रही हैं. उनका काम किसी को दिखाई नहीं पड़ता। घर हो या बाहर या फिर दफ़्तर, उनके श्रम की अमूमन क़द्र नहीं होती। या तो मान लिया जाता है कि ये मुफ़्त का काम है या फिर महिलाओं को तो ये करना ही है। जो पेशेवर काम हैं अब भी उनमें महिलाएं कम हैं। लेकिन बड़े औद्योगिक घरानों के बोर्ड्स में जो महिलाएं है, उनका कामकाज बताता है कि यहां भी वो अपने पुरुष सहकर्मियों से बेहतर और ज़्यादा काम कर रही हैं। उनकी संख्या भी बढ रही है। कमाल ये है कि ये बिल्कुल शुरुआत है और अभी से ये सवाल उठने लगा है कि क्या ये महिलाएं अपने पुरुष सहकर्मियों के लिए ख़तरा हैं? इस सवाल में कितनी सच्चाई है, क्या समाज महिलाओं को बराबरी का मौक़ा देने या मानने को तैयार है? क्या हमारे सामाजिक समीकरण बदल रहे हैं?