यह भारतीय लोकतंत्र की बदली हुई बोली है, वो बोली जिसमें बस आरोप-प्रत्यारोप हैं, संदेह और सवाल हैं और अपने ही नागरिकों पर अविश्वास है. जो सिलसिला नागरिकता संशोधन क़ानून और उसके विरोध से शुरू हुआ था, वो दिल्ली के चुनाव तक पहुंच गया है. शाहीन बाग को अब एक प्रतीक बनाने की कोशिश हो रही है. एक तरफ लोकतंत्र की ख़ूबसूरती का प्रतीक, तो दूसरी तरफ़ देश के ख़िलाफ़ साज़िश कर रही ताकतों का प्रतीक. सच क्या है और भारतीय लोकतंत्र का रास्ता इसके बीच से कैसे निकलेगा?