शान और कुमार सानू की आवाज में 'सदानीरा' डाक्यूमेंट्री सीरीज ने जीता फैंस का दिल

जब समकालीन सिनेमा राजनीतिक विमर्शों, हिंसा और ग्लैमर की परिधियों में घूमता प्रतीत होता है, ऐसे समय में देवऋषि की डॉक्यूमेंट्री श्रृंखला ‘सदानीरा’ एक विलक्षण और आध्यात्मिक हस्तक्षेप बनकर उभरती है.

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नई दिल्ली:

जब समकालीन सिनेमा राजनीतिक विमर्शों, हिंसा और ग्लैमर की परिधियों में घूमता प्रतीत होता है, ऐसे समय में देवऋषि की डॉक्यूमेंट्री श्रृंखला ‘सदानीरा' एक विलक्षण और आध्यात्मिक हस्तक्षेप बनकर उभरती है. यह केवल एक सिनेमाई प्रस्तुति नहीं है, बल्कि भारत की नदियों के माध्यम से उसके सांस्कृतिक मानस, मिथकों, और आध्यात्मिक चेतना की खोज है.यह फिल्म नहीं, एक अनहदी पुकार है- जिसे देखना नहीं, सुनना होता है.

पहले दृश्य से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘सदानीरा' की गति किसी सामान्य वृत्तचित्र की नहीं है. इसके दृश्य विन्यास में ध्वनि, प्रकाश और जल की तरंगें एकत्रित होकर जैसे किसी वैदिक ऋचा में बदल जाती हैं. निर्देशक और संगीतकार देवऋषि न केवल इस श्रृंखला के सौंदर्यशास्त्र को रचते हैं, बल्कि भारतीय ध्वनि-दर्शन को उसके गूढ़तम रूप में प्रस्तुत करते हैं.

डॉक्यूमेंट्री की शुरुआत 'ब्रह्मांड की उत्पत्ति और जल का अवतरण' नामक प्रकरण से होती है, जहां विज्ञान और वैदिक तात्त्विकता का समन्वय एक अलौकिक सौंदर्य में ढल जाता है. यह कोई ऐतिहासिक पुनरावृत्ति नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक पुनर्स्मरण है जैसे कोई ऋषि नदी के तट पर बैठे हुए सृष्टि की मौन कथा दोहरा रहा हो. गायन की दृष्टि से देखें तो टाइटल गीत  'सदानीरा' शान की मधुर स्वर में अलग एहसास देती है.

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वहीं कुमार सानू की आवाज में 'सम्मान' गीत जल से साथ नारी के सम्मान की बात कहता है दोनों गीत को देवऋषि के साथ पी नरहरि ने मिलकर लिखा है और देवऋषि का संगीत इस श्रृंखला को एक नई गरिमा प्रदान करती हैं. ये स्वर यहां किसी गीत की तरह नहीं, बल्कि प्राचीन अनुगूंजों की तरह प्रतीत होते हैं जैसे सदियों पुरानी नदियों की स्मृतियां इन स्वरों में प्रतिध्वनित हो रही हों.

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क्या एक नदी केवल जलधारा है?

'सदानीरा' इस प्रश्न का उत्तर एक साधारण तथ्यात्मक शैली में नहीं देती, यह उत्तर धीरे-धीरे बहते हुए आपके भीतर उतरता है. यह फिल्म आपको दर्शक नहीं, एक श्रोता बनाती है, उस मौन की जो हिमालय से गंगा बनकर बहता है, उस संगीत की जो कावेरी की लहरों में झंकृत होता है. व्योमकेश के दृश्य संयोजन में कविता और गणित का समन्वय है. उनके दृश्य किसी कैनवास पर उकेरे गए स्वप्न की भांति प्रतीत होते हैं. कैमरे की गति तेज नहीं है यह किसी संत की सांस की लय में गतिमान है. दृश्यावली में कहीं कोई भव्यता का प्रदर्शन नहीं, बल्कि प्रकृति की नीरवता को आत्मा से पकड़ लेने की चेष्टा है. इस सीरीज को किसी पारंपरिक वृत्तचित्र की तरह देखना इसकी आत्मा को सीमित करना होगा. यह एक साधना है जहां दर्शक, संगीत, नदी और मौन सब एक हो जाते हैं.

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