दिलीप कुमार, एक बागी शहजादा, जो मोहब्बत के लिए सल्तनत छोड़ने को तैयार था

साल 1944 में देविका रानी के कहने पर यूसुफ़ ख़ान नाम के एक शख्स ने दिलीप कुमार नाम की शख़्सियत हासिल कर ज्वारभाटा फिल्म से जो शुरुआत की, वो हिंदी सिनेमा के लहराते समंदर को आज तक प्रभावित करती रही. 

विज्ञापन
Read Time: 25 mins
देविका रानी के कहने से यूसुफ खान से दिलीप कुमार बन बॉलीवुड में बुलंदियों को छुआ
मुंबई:

दिलीप कुमार बॉलीवुड के एक ऐसा अभिनेता, जिनके लोग ही फैन नहीं थे, खुद पूरा बॉलीवुड उनका फैन था. वे दिलीप कुमार अब हमारे बीच नहीं रहे. 98 बरस की उम्र में उनका निधन हो गया. वह लंबे समय से बीमार चल रहे थे. उनका जन्म 11 दिसंबर 1922 में हुआ था. उन्हें हिंदी सिनेमा के पहले खान के नाम से भी जाना जाता है. दिलीप कुमार ने एक्टिंग की शुरुआत 1944 में फिल्म ज्वार भाटा से की थी. हिंदी सिनेमा में मेथड एक्टिंग का श्रेय दिलीप साहब को ही दिया जाता है.

वो एक बाग़ी शहज़ादा था, जो अपनी मोहब्बत के लिए हिंदुस्तान की सल्तनत छोड़ने को तैयार था. पृथ्वीराज कपूर की जलती हुई आंखों और सख़्त-कांपती आवाज़ का सामना दिलीप कुमार की कौंधती हुई आंखें और लरजती हुई आवाज़ ही कर सकती थी, लेकिन फिल्म मुगले आज़म कई दशकों में फैले दिलीप कुमार के फिल्मी सफ़र का एक अहम मुकाम भर थी.

दरअसल, साल 1944 में देविका रानी के कहने पर यूसुफ़ ख़ान नाम के एक शख्स ने दिलीप कुमार नाम की शख़्सियत हासिल कर ज्वारभाटा फिल्म से जो शुरुआत की, वो हिंदी सिनेमा के लहराते समंदर को बिल्कुल आज तक प्रभावित करती रही. 

Advertisement

आज़ाद भारत की हसरतों का जो नया दौर था, उसके लिए दिलीप कुमार जैसी एक मुकम्मिल शख़्सियत चाहिए थी- जो गांव का भी हो जाता, शहर का भी- ग़रीब का बेटा भी बन जाता और शहजादा भी, राम भी बन जाता और श्याम भी और किसी दिन शहर से आई बस का मुक़ाबला अपनी बैलगाड़ी से करने उतर आता.

Advertisement

 कहने को देवदास जैसी फिल्म ने दिलीप कुमार को ट्रैजेडी किंग का खिताब दिला दिया, लेकिन उनकी शख़्सियत और अभिनय के रंग हज़ार थे. उनकी उदासी में, उनकी मुस्कुराहट में, उनके गाने में, उनके थिरकने में एक हिंदुस्तान हंसता-गाता, थिरकता और उदास हो जाता था. पचास और साठ के दशकों में भोले-भाले गंवई राजकपूर और तेज़-तर्रार शहरी देवानंद के साथ ये दिलीप कुमार थे, जिन्होंने उस दौर की हिंदुस्तानी धड़कन को एक मुकम्मिल ज़मीन दी. इन तमाम फिल्मों की अलग-अलग भूमिकाएं अदा करते दिलीप कुमार अभिनय का स्कूल हो गए थे. उन्होंने सितारे और अभिनेता को इस खूबसूरती के साथ फेंटा कि वो हर फिल्म में किरदार में ढल जाते थे, लेकिन दिलीप कुमार भी बने रहते थे. ये वो चीज़ थी जिसे बाद में अमिताभ बच्चन और शाहरुख खान ने उनसे सीखा- अभिनय के बावजूद अपने स्टारडम को बनाए रखना और स्टारडम के बावजूद अपने अभिनय के साथ समझौता न करना. उनकी संवाद अदायगी में जो उतार-चढ़ाव हैं, जो अनायास चली आने वाली भर्राहट है या फिर गूंजता हुआ गुस्सा, उसे अमिताभ अपनी धीमी और शाहरुख़ अपनी तेज़ संवाद अदायगी के बावजूद आज़माते हुए दिखते हैं. 

दिलीप कुमार के अभिनय के कई दौर रहे. अस्सी के दशक में उन्होंने चरित्र अभिनेता के तौर पर वापसी की. क्रांति, मशाल, सौदागर, विधाता जैसी फिल्मों में आए. शक्ति में अमिताभ बच्चन के पिता की यादगार भूमिका अदा की. इस फिल्म ने फिर बताया कि उनके अभिनय की गहराई में कोई बात है जिसे दूसरे छू नहीं पाते. साठ साल के अपने फिल्मी सफ़र में दिलीप कुमार ने साठ से ज़्यादा फिल्में कीं. दाग, आन, नया दौर, कोहिनूर, गंगा-जमुना, लीडर जैसी न जाने कितनी यादगार फिल्में हैं जिनमें दिलीप कुमार के अभिनय के अलग-अलग रंग दिखते हैं.

Advertisement

दिलीप कुमार पाकिस्तान के पेशावर में पैदा हुए थे. तब वह हिंदुस्तान था. ये 11 दिसंबर 1922 की बात है. ज़ाहिर है, पाकिस्तान में भी उनके दीवानों की कमी नहीं थी. 1999 में दिलीप कुमार के दिल का ऑपरेशन हुआ था. इसके बाद उनकी सेहत पहले जैसी नहीं रह पाई. बीते एक दशक में वो बार-बार अस्पताल जाकर लौट आते थे. इस बार रविवार सुबह सांस लेने में तकलीफ़ की शिकायत के बाद उन्हें मुंबई के हिंदुजा अस्पताल में भर्ती कराया गया. वो ऑक्सीजन पर रखे गए, फिर पता चला, उनके फेफड़ों में पानी भर गया है. 98 बरस की देह आख़िरकार ये बोझ उठा न सकी और हिंदी सिनेमा का सबसे बड़ा सितारा हमेशा-हमेशा के लिए दूर चला गया.

Advertisement
Featured Video Of The Day
Maharashtra Cabinet : जगह न मिलने से Chhagan Bhujbal भड़के, आगे क्या होगा | CM Fadanavis