वो अनलकी म्यूजिक डायरेक्टर, जो नेशनल अवॉर्ड मिलने के बाद भी काम को तरसा, म्यूजिकल ब्लॉकबस्टर से पहले हुई मौत

भारतीय सिनेमा की दुनिया में कई ऐसे म्यूज़िक डायरेक्टर्स हुए हैं जिनके गाने आज भी सुनने वालों के दिलों में बसते हैं, लेकिन उनके पीछे की कहानी बेहद दर्दनाक रही. ऐसा ही एक नाम है गुलाम मोहम्मद का.

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1968 में गुलाम मोहम्मद का निधन हो गया
नई दिल्ली:

भारतीय सिनेमा की दुनिया में कई ऐसे म्यूज़िक डायरेक्टर्स हुए हैं जिनके गाने आज भी सुनने वालों के दिलों में बसते हैं, लेकिन उनके पीछे की कहानी बेहद दर्दनाक रही. ऐसा ही एक नाम है गुलाम मोहम्मद का. एक बेहद टैलेंटेड संगीतकार जिन्होंने ‘पाकीजा' (Pakeezah) और ‘मिर्ज़ा ग़ालिब' (Mirza Ghalib) जैसी क्लासिक फिल्मों को अमर बना दिया. उन्होंने अपनी जिंदगी में नेशनल अवार्ड जीता, लेकिन किस्मत ने उनका साथ नहीं दिया. कमाई सिर्फ सौ रुपए प्रति माह से शुरू हुई थी और जब उनकी बनाई फिल्म ब्लॉकबस्टर बनने वाली थी, तब वे इस दुनिया से जा चुके थे.

राजस्थान में हुआ जन्म 

गुलाम मोहम्मद का जन्म 1905 में राजस्थान के बीकानेर जिले के नाल गांव में हुआ था. उनके पिता नबी बख्श जाने-माने तबला वादक थे और संगीत की पहली शिक्षा उन्हें घर से ही मिली. बचपन से ही वे ढोलक, तबला और पखावज जैसे पारंपरिक वाद्ययंत्रों में माहिर हो गए थे. कहा जाता है कि एक बार जूनागढ़ राज्य में उनके संगीत से प्रभावित होकर एक मंत्री ने उन्हें सोने की तलवार भेंट की थी.

100 रुपए महीना सैलरी

1924 में गुलाम मोहम्मद मुंबई आ गए और फिल्मों में किस्मत आजमाने लगे. आठ साल के संघर्ष के बाद उन्हें पहली बार एक फिल्म में तबला बजाने का मौका मिला, जिसमें उन्हें सिर्फ ₹100 महीना सैलरी मिलती थी. उन्होंने अपने शुरुआती दौर में म्यूज़िक डायरेक्टर नौशाद के साथ करीब 12 साल काम किया. इसके बाद उन्होंने 1947 की फिल्म ‘टाइगर क्वीन' (Tiger Queen) से बतौर स्वतंत्र संगीतकार शुरुआत की.

उनके गानों ने धीरे-धीरे पहचान बनानी शुरू की. ‘परदेस' (Pardes) फिल्म में लता मंगेशकर की आवाज में उनके गीत “जिया लागे नहीं मोरा” और “रात है तारों भरी” ने लोगों का दिल जीत लिया. इसके बाद ‘अजीब लड़की', ‘अंबर', और ‘दिल-ए-नादान' जैसी फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया, लेकिन संघर्ष जारी रहा. 1954 में गुलाम मोहम्मद को ‘मिर्ज़ा ग़ालिब' के लिए नेशनल फिल्म अवॉर्ड फॉर बेस्ट म्यूज़िक डायरेक्शन मिला. फिल्म के गाने “दिल-ए-नादान तुझे, “फिर मुझे दीदा-ए-तर, और “आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक” आज भी क्लासिक माने जाते हैं. उस समय प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने भी फिल्म की तारीफ की थी.

काम मिलना हुआ बंद

इसके बावजूद गुलाम मोहम्मद को काम मिलना बंद हो गया. साल 1962 में डायरेक्टर कमाल अमरोही ने उन्हें ‘पाकीजा' के लिए संगीत देने का मौका दिया. उन्होंने पूरे दिल से इस फिल्म का संगीत तैयार किया, लेकिन शूटिंग में देरी और मेना कुमारी और अमरोही के विवादों के चलते फिल्म की रिलीज टलती गई. 1968 में गुलाम मोहम्मद का निधन हो गया. वो अपनी बनाई संगीत की सफलता देख ही नहीं पाए. जब 1972 में ‘पाकीजा' रिलीज हुई, तो उसके गाने “इन ही लोगों ने, “चलते चलते, “ठहरे रहियो, “मौसम है आशिकाना” अमर हो गए.

उनकी याद में अभिनेता प्राण ने 1972 में फिल्मफेयर अवॉर्ड लेने से इनकार कर दिया. उन्होंने कहा कि उस साल का बेस्ट म्यूज़िक डायरेक्टर अवॉर्ड गुलाम मोहम्मद को मिलना चाहिए था, जिन्होंने ‘पाकीजा' को अमर बना दिया.

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