DDLJ 30 Years: सिमरन जिसने ‘ना’ कहना सिखाया, काजोल- शाहरुख की यह फिल्म आज भी युवाओं करती है इंस्पायर...

20 अक्टूबर को 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' को आए तीस साल हो चुके हैं. लेकिन सिमरन की कहानी अब भी दिलों में रोशन है.

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'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' को तीस साल पूरे
नई दिल्ली:

20 अक्टूबर को 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे' को तीस साल हो चुके हैं, लेकिन सिमरन की कहानी अब भी दिलों में रोशन है. उस दौर में जब फिल्मों में लड़कियां सिर्फ 'हां' कहने के लिए गढ़ी जाती थीं, सिमरन ने 'ना' कहना सीखा. वो भी ऐसे अंदाज़ में जिसमें प्यार और परिवार की मर्यादा दोनों समाहित थे. यशराज फिल्म्स के यूट्यूब पेज पर एक साल पहले फिल्म से करवाचौथ वाली रील अपलोड की गई थी, जिसे अब तक 6.8 मिलियन बार देखा जा चुका है, यह साबित करता है कि फ़िल्म को लेकर लोगों में अब भी तीस साल पहले जैसी ही दीवानगी है.

लव, ट्रेन और संस्कार की कहानी

हिंदी सिनेमा में किसी लड़की ने सबसे लंबा सफर ट्रेन पकड़ते हुए तय किया है, तो वो सिमरन है. दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे सिर्फ एक प्रेम कथा नहीं थी. यह उस दौर की सोच थी, जहां लड़की अपने सपनों का पीछा भी करती थी और पिता की आज्ञा भी मानती थी. वह प्यार करती थी, मगर 'बाबूजी प्लीज़' कहे बिना घर छोड़कर नहीं जाती थी.

दो पीढ़ियों के बीच फंसी सिमरन

लंदन में पली बढ़ी सिमरन आधुनिक है, मगर अपने संस्कार नहीं भूलती. यूरोप ट्रिप पर दोस्तों के साथ जाती है, लेकिन मंदिर में दुआ मांगती है कि उसके सपनों का राज एक दिन जरूर आए. वह 'आई लव यू' भी बोलती है और राज से प्यार में अपने निर्णय की ताकत भी दिखाती है. सिमरन उस भारतीय लड़की की तस्वीर है जो आधुनिकता को अपनाना चाहती है लेकिन जड़ों से जुड़ी रहना भी जरूरी मानती है.

प्यार है, मगर पापा की मंजूरी भी चाहिए

फिल्म की कहानी प्यार और पिता की अनुमति के बीच झूलती रहती है. राज और सिमरन के बीच एक यादगार संवाद है 'कोई बात नहीं सिनोरीटा, बड़े-बड़े देशों में ऐसी छोटी-छोटी बातें होती ही रहती हैं.' उसी बड़े देश में सिमरन का दिल राज के लिए धड़कता है, लेकिन शादी भारत में किसी और से तय है. वह भाग सकती थी, लेकिन समझदार तरीके से इंतजार करती है. जब पिता कहते हैं 'जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिंदगी', तब सिर्फ बेटी नहीं, एक पुरानी सोच भी नई राह की ओर खुलती है.चौधरी बलदेव सिंह बने अमरीश पुरी फिल्म में सिर्फ पिता नहीं बल्कि घर के नियम हैं. सिमरन की दुनिया उन्हीं के इर्दगिर्द घूमती है और उसकी आज़ादी भी उन्हीं की मर्यादा से शुरू होती है. कमाल यह है कि सिमरन लड़ती नहीं, बात करती है. वह दिखाती है कि एक बेटी की 'हां' उतनी मायने रखती है जितनी एक पिता की 'इजाजत'.

लाजो. वो मां जो खुद नहीं भाग सकी, आधुनिकता के करीब पहुंचाती फिल्म

फरीदा जलाल का किरदार लाजो फिल्म का सबसे शांत लेकिन असरदार हिस्सा है. वह उन माताओं की आवाज़ है, जिन्होंने अपनी बेटियों में वह हिम्मत देखी. वही हिम्मत जो उनके पास कभी नहीं थी. 'जब लड़की जवान हो जाती है तब उसकी मां, मां नही रहती सहेली बन जाती है' संवाद फिल्म में बदलते वक्त का प्रतिबिंब था. फिल्म में भारतीयता सिर्फ परंपरा में नहीं, रिश्तों की समझ में है. लंदन में रहते हुए भी चौधरी परिवार की सोच वही है कि बेटी की शादी पिता तय करेंगे. लेकिन अंत में पिता कहते हैं 'जा सिमरन जा' यह दिखाता है कि परंपरा बदल सकती है. सिमरन के ज़रिए यह स्पष्ट होता है कि भारतीयता और आधुनिकता साथ रह सकती हैं, बस बातचीत और समझ की जरूरत है.

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आज की सिमरन

2025 में लड़कियां सिमरन से बिल्कुल अलग हैं. वे अकेले विदेश ट्रिप कर सकती हैं, अपनी पसंद की नौकरी चुन सकती हैं, इंस्टाग्राम पर राय रख सकती हैं और इतनी समझदार, स्वतंत्र हैं कि अपने पिता की अनुमति के बिना भी सही फैसले ले सकती हैं.फिर भी, सिमरन की कहानी नई पीढ़ी को याद दिलाती है कि प्यार और परिवार के बीच संतुलन बनाना हमेशा जरूरी है. कभी-कभी समझाना, बातचीत करना और नर्म तरीके से अपनी बात रखना भी जरूरी है. उन्हें याद होगा कि सिमरन ने तीस साल पहले ही वह रास्ता साफ़ कर दिया था.

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