हिंदी सिनेमा के दिग्गज कलाकार दिलीप कुमार का 98 वर्ष की उम्र में निधन हो गया है. वह पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे. उनका निधन मुंबई के हिंदुजा अस्पताल में हुआ है. उनका करियर शानदार रहा है और एक्टिंग के मोर्चे पर वह बॉलीवुड के दिग्गज कलाकार रहे हैं. लेकिन यह सफर बहुत ही अनोखे ढंग से शुरू हुआ. बात 1944 की है. उन दिनों बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो का अपना जलवा हुआ करता था. लेकिन बॉम्बे टॉकीज को एक नए हीरो की तलाश थी. स्टूडियो की मालकिन देविका रानी थीं. इसी सब जद्दोजहद के बीच एक दिन वे बाजार में खरीदारी के लिए गईं. उनका इरादा खरीदारी का ही था लेकिन दिमाग में अपने नए हीरो की तलाश की चाहत भी बसी हुई थी. खरीदारी के दौरान वे एक फलों की दुकान पर गईं. उस दुकान पर मौजूद युवा उनकी पारखी नजरों को भा गया. इसे किस्मत कहें या इत्तेफाक वह युवा सिर्फ इसलिए दुकान में था कि उसके पिता बीमार थे. देविका को उसका चेहरा ऐक्टिंग के माकूल लगा और आंखों में कशिश दिखी जो किसी सुपरस्टार के लिए जरूरी चीजें थीं. देविका ने उन्हें अपना विजिटिंग कार्ड दिया और कहा कि कभी स्टूडियो में आकर मिलना.
युसूफ खान के दिलीप कुमार बनने का सफर
ये युवा जल्द ही स्टूडियो पहुंच गया. उसे कुछ टेस्ट के बाद अप्रेंटिस पोस्ट के लिए रख लिया गया. इसके बाद देविका ने अपने इस हीरो पर फोकस किया. अब वे उन्हें ऐसा टच देना चाहती थीं कि वे सिल्वर स्क्रीन पर छा जाए. इस तरह युसूफ खान बॉम्बे टॉकीज का हिस्सा बन चुका था. युसूफ का दिलीप कुमार बनने तक का सफर बड़ा रोचक था. लेखक अशोक राज ने अपनी किताब में 'हीरो' में लिखा है कि हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार भगवती चरण वर्मा ने उन्होंने दिलीप नाम दिया था जबकि माना जाता है कि कुमार उन्हें उस समय के उभरते सितारे अशोक कुमार से मिला था. हालांकि फिल्म लेखक बनी रूबेन कहते हैं कि देविका रानी उनके लिए तीन नाम लेकर आई थीं, दिलीप कुमार, वासुदेव और जहांगीर.
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जन्म, शिक्षा और नौकरी
दिलीप कुमार का जन्म पेशावर (अब पाकिस्तान में) 11 दिसंबर, 1922 को हुआ था. उनके 12 भाई-बहन थे और वे तीसरे नंबर के थे. उनके पिता 1930 के दशक में मुंबई आ गए थे, वे यहां अपना फलों का कारोबार स्थापित करना चाहते थे और उन्होंने ऐसा किया भी. वहीं युसूफ खालसा कॉलेस से आर्ट्स में ग्रेजुएशन कर रहे थे. पढ़ाई के बाद युसूफ नौकरी करने निकले तो उन्होंने आर्मी कैंटीन में असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी की. दिलचस्प यह कि उनके परिवार में फिल्म या संगीत से किसी का दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा था.
पहली फिल्म
कुछ समय की तैयारी के बाद समय आ गया था कि दिलीप कुमार को लॉन्च किया जाए. देविका रानी ने 1944 में 'ज्वार भाटा' फिल्म से उन्हें लॉन्च किया. फिल्म की हीरोइन भी नई थी. इसमें दिलीप कुमार ने एक नौटंकी कलाकार का रोल निभाया था. लेकिन फिल्म चल नहीं सकी और सबको लगा कि इस हीरो में दम नहीं है. लेकिन तीन साल की मेहनत के बाद वह समय भी आया जब पहली फिल्म ने क्लिक किया. 1947 की फिल्म 'जुगनू' ने उनकी किस्मत बदल दी और फिर उसके बाद उन्हें कभी पीछे मुड़कर देखने का मौका नहीं मिला.