कराची में एक भव्य शादी के दौरान अचानक गोलियों की बौछार शुरू हो जाती है. एक तरफ बलूच गैंग है, तो दूसरी तरफ पठान गैंग. दोनों एक-दूसरे पर गोलियां चलाने लगते हैं. इस शूटआउट के पीछे जो गाना बज रहा है, वह है ‘रंभा हो'- 1981 की फिल्म अरमान का एक गोवा कार्निवल आधारित गीत, जिसे इस फिल्म में पूरी तरह नया और हिंसक अंदाज दिया गया है. यहीं से साफ हो जाता है कि धुरंधर कोई आम फिल्म नहीं, बल्कि एक नया जॉनर है- गैंगस्टर म्यूजिकल.
फिल्म धुरंधर कराची के पुराने इलाके लियारी में सेट है और रहमान डकैत के गैंग में हम्जा अली मजारी के उभरने की कहानी दिखाती है. यह फिल्म सिर्फ अपराध नहीं, बल्कि दोस्ती, दुश्मनी और रिश्तों पर भी फोकस करती है. अगर राम गोपाल वर्मा की सत्या को कराची में रख दिया जाए और उसमें हटकर म्यूजिक जोड़ दिया जाए, तो कुछ वैसी ही फिल्म बनती है- धुरंधर.
जैसे सत्या में मुंबई का अंडरवर्ल्ड दिखाया गया था, वैसे ही धुरंधर में कराची का अंडरवर्ल्ड सामने आता है. किरदारों के चेहरे पर मोटा मेकअप, गंदे कपड़े और कड़वी भाषा उनके हिंसक जीवन को दर्शाती है. 1998 में आई सत्या ने उस दौर की रोमांटिक और पारिवारिक फिल्मों की भीड़ को तोड़ा था. उसी तरह धुरंधर भी आज के समय में एक अलग पहचान बनाती है. इस फिल्म ने भारतीय बॉक्स ऑफिस पर 483 करोड़ रुपये की कमाई कर ली है.
राम गोपाल वर्मा ने धुरंधर को “भारतीय सिनेमा में क्वांटम लीप” बताया है. वहीं निर्देशक आदित्य धर का कहना है कि उन्हें पहली बार लगा कि उनके काम को सही मायनों में समझा गया है. फिल्म इसलिए चली क्योंकि इसकी कहानी मजबूत है, न कि सिर्फ राजनीतिक संदेश की वजह से. फिल्म में दिखाए गए भारत-पाकिस्तान संबंधों, खुफिया एजेंसियों की प्रतिद्वंद्विता या बलूचिस्तान का मुद्दा आम दर्शकों के लिए उतना अहम नहीं रहा. लोगों ने फिल्म को उसके कंटेंट और एंटरटेनमेंट के लिए पसंद किया.
फिल्म के हीरो से ज्यादा चर्चा इसके विलेन की हो रही है. अक्षय खन्ना ने रहमान डकैत उर्फ शेर-ए-बलूच का किरदार निभाया है, जबकि राकेश बेदी लियारी के चालाक नेता जमाल जलाली बने हैं. दोनों को जबरदस्त तारीफ मिल रही है. फिल्म का म्यूजिक भी इसकी बड़ी ताकत है. शाश्वत सचदेव के संगीत में दिलजीत दोसांझ और हनुमैनकाइंड जैसे ग्लोबल कलाकारों की मौजूदगी है. गानों के जरिए किरदारों की एंट्री इस तरह कराई गई है कि वे सोशल मीडिया पर वायरल हो जाएं.
कराची को अपराध और हिंसा के अड्डे के रूप में दिखाने पर पाकिस्तान में नाराजगी भी है, लेकिन बीबीसी की कई डॉक्यूमेंट्री पहले ही इस इलाके की सच्चाई दिखा चुकी हैं. यह फिल्म राष्ट्रवादी सोच से प्रेरित जरूर है, लेकिन हाल के वर्षों में आई कई राजनीतिक फिल्मों की तरह यह सिर्फ नारेबाजी तक सीमित नहीं है. धुरंधर इसलिए कामयाब रही क्योंकि इसकी कहानी दमदार है, प्रस्तुति प्रभावशाली है और म्यूजिक जबरदस्त है.
फिल्म को चैप्टर्स में बांटा गया है, जो ओटीटी देखने वाली पीढ़ी को पसंद आता है. हिंसा भी खुलकर दिखाई गई है, जिसे आज का दर्शक स्वीकार करता है. धुरंधर और साल की दूसरी बड़ी हिट सैयारा में एक बात समान है- दोनों फिल्मों को बिना ज्यादा प्रमोशन के दर्शकों ने खुद खोजा. अच्छा म्यूजिक और मजबूत कहानी ही इनकी असली मार्केटिंग बनी. यह फिल्म यह सवाल भी खड़ा करती है कि क्या फिल्मों का जरूरत से ज्यादा प्रमोशन हिंदी सिनेमा को नुकसान पहुंचा रहा है? शायद अब फिल्ममेकर्स को बेचने से ज्यादा कहानी कहने की कला पर ध्यान देना चाहिए.