गले तक कर्ज में डूबे थे राज कपूर, घर और स्टूडियो पड़ा था गिरवी, 21 साल के ऋषि कपूर की एक फिल्म ने चमकाई किस्मत

द ग्रेट शो मैन आकंठ कर्जे में डूब गए थे. घर और आर.के. स्टूडियो तक गिरवी रखना पड़ा. कर्ज के बोझ, गहरी मायूसी और डिप्रेशन में उन्होंने एक कॉमिक्स पढ़नी शुरू की और यहां से उन्हें एक ब्लॉकबस्टर फिल्म का आइडिया आया.

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राज कपूर के लिए बहुत लकी साबित हुआ था ऋषि कपूर का डेब्यू
नई दिल्ली:

राज कपूर का सबसे महत्वाकांक्षी सपना टूट चुका था. 'मेरा नाम जोकर' जिससे उम्मीदों का पहाड़ खड़ा किया था वो चारों खाने चित्त गिर गई थी. द ग्रेट शो मैन आकंठ कर्जे में डूब गए थे. घर और आर.के. स्टूडियो तक गिरवी रखना पड़ा. कर्ज के बोझ, गहरी मायूसी और डिप्रेशन में उन्होंने अपना पसंदीदा शगल फिर से उठाया. यह एक कॉमिक बुक थी. नाम था आर्ची. इसे पढ़ते हुए उनकी नजर एक संवाद पर अटक गई, और वो था, “सत्रह साल कोई छोटी उम्र नहीं होती, हमारी भी अपनी जिंदगी है, और हमें उसका अहसास है.” इसके बाद जो हुआ उसने रिवायतों को दरकिनार करते हुए नई मिसाल कायम की.

इस पूरे किस्से का जिक्र केए अब्बास की किताब बॉबी-द कंप्लीट स्टोरी में मिलता है. जायज भी है. एक ऐसी फिल्म जिसने सिनेमा की दिशा और दशा बदल दी, भला उस पर एक किताब क्यों न लिखी जाए? वो भी उस शख्स के हाथों जो उस हिस्ट्री का हिस्सा रहा हो!

आर्ची कॉमिक्स के एक वाक्य '17 कोई छोटी उम्र नहीं होती' ने राज साहब को भीतर तक झकझोर दिया. राज कपूर कार उठाकर सीधे जुहू में अपने भरोसेमंद लेखक 'ख्वाजा अहमद अब्बास' के दफ्तर पहुंचे. रास्ते में अब्बास साहब के साथी और सह-लेखक वी.पी. साठे भी उनके साथ हो लिए. डियोनार से जुहू की उस यात्रा में राज कपूर पूरा सीन दिमाग में गढ़ चुके थे. हीरो का किरदार अपने बेटे चिंटू (ऋषि कपूर) को देने का फैसला ले चुके थे. वही बेटा जिसकी 'मेरा नाम जोकर' में अदायगी को काफी सराहा गया था.

1972 की वो दोपहर एक मीठी याद बनकर सबके दिलों में बस गई. कपूर, अब्बास और साठे ने मिलकर बॉबी का बीज बोया. टीनएज प्रेम पर आधारित इस फिल्म ने मासूमियत, सादगी और बेमिसाल संगीत के साथ एक पूरी पीढ़ी को छू लिया.

28 सितंबर 1973 में जब 'बॉबी' रिलीज हुई तो एक मिसाल बन गई. सत्तर के दशक की शुरुआत जबरदस्त थी. भारतीय सिनेमा का इकबाल बुलंद था. राजेश खन्ना 15 हिट्स देकर रोमांटिक हीरो के तौर पर छाए हुए थे, साथ ही देव आनंद की 'हरे राम हरे कृष्णा' (1971) ने हिप्पी और नशे की संस्कृति को बखूबी दिखाया था, तो इसी बीच प्रकाश मेहरा की 'जंजीर' (1973) ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को 'एंग्री यंग मैन' से रूबरू करा दिया था.

ऐसे ही दौर में राज कपूर ने किशोर उम्र की मासूम बगावत पर 'बॉबी' पेश की, जहां ऋषि कपूर युवा पीढ़ी के सपनों का चेहरा बन गए. फिल्म में परंपराओं को तोड़ते हुए राज कपूर ने चौदह साल की किशोरी डिंपल कपाड़िया को मॉडर्न लुक दिया. आर्ची कॉमिक्स के पन्नों पर सजे किरदारों की ही तरह शॉर्ट्स, स्विमसूट, मैक्सी गाउन, पोल्का डॉट्स और बेल-बॉटम्स का जोर रहा. ऋषि कपूर का अंदाज भी एक झटके में बदल गया. फटी जीन्स, बुशशर्ट और पुलओवर युवाओं का स्टाइल स्टेटमेंट बन गया.

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इस फिल्म ने कई नैरेटिव बदल कर रख दिए. किशोर प्रेम, नए एक्टर्स, युवा पीढ़ी की बगावत, फैशन, म्यूजिक और बोल्डनेस ने युवाओं को खूब आकर्षित किया और यहीं से हिंदी सिनेमा में टीनएज रोमांस का दौर शुरू हुआ.
 

(इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है. यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)
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