बिहार में चुनावी समर का बिगुल बज चुका है. गलियों से लेकर ग्राउंड रिपोर्ट्स तक एक बार फिर वही चर्चित शब्द लौट आया है, जिसने तीन दशक पहले राजनीति की दिशा बदल दी थी ‘MY', यानी मुस्लिम-यादव फ़ॉर्मूला. यह वही राजनीतिक समीकरण है जिसे राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के संस्थापक लालू प्रसाद यादव ने बनाया था और जिसने बिहार की राजनीति के पुराने जातीय ढांचे को हिला दिया था.
आज 77 साल के लालू यादव भले ही बीमारियों और उम्र की वजह से सक्रिय राजनीति से दूर हो गए हों, लेकिन उनका ‘एमवाई फ़ॉर्मूला' अभी भी पार्टी की नींव बना हुआ है. अब यह विरासत उनके बेटे तेजस्वी यादव के कंधों पर है, जो पिता की सियासी रणनीति को नए दौर में फिर से परिभाषित करने में जुटे हैं.
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एमवाई समीकरण और बिहार की राजनीति में इसकी भूमिका पर पिछले तीन दशकों में खूब लिखा और कहा गया है. लेकिन यह जानना दिलचस्प है कि आखिर लालू यादव ने यह फ़ॉर्मूला कैसे बनाया, जिसने बिहार की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया.
दो ‘एम' से बदला बिहार - मंदिर और मंडल
राजनीति की दिशा अक्सर इतिहास तय करता है, और लालू यादव का एमवाई फ़ॉर्मूला दो ‘एम'मंदिर और मंडल-से आकार लिया. साल 1990 ने भारतीय राजनीति की धारा बदल दी थी. एक ओर वी.पी. सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने का बड़ा फैसला लिया, जिससे केंद्र सरकार और सार्वजनिक उपक्रमों की नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 27 फीसदी आरक्षण की बात हुई. दूसरी ओर, भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राम मंदिर निर्माण की मांग को लेकर राम रथ यात्रा शुरू कर दी.
एक घटना ने जाति को राजनीति के केंद्र में ला दिया, तो दूसरी ने भाजपा को दो सांसदों वाली पार्टी से दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बनने की दिशा दे दी. और बिहार में, इन दोनों घटनाओं पर लालू यादव की नजर थी. उन्होंने इन दो राजनीतिक तूफानों की हवा को अपनी दिशा में मोड़ लिया.
मंडल का दौर: पिछड़ों की राजनीति का नया उभार
1989 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस बहुमत से पीछे रह गई. बोफोर्स घोटाले के बाद कांग्रेस छोड़ चुके विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनता दल के नेतृत्व में भाजपा के समर्थन से संयुक्त मोर्चा सरकार बनाई.
अगस्त 1990 में वी.पी. सिंह सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं. इसके तहत पिछड़े वर्ग के लोगों को नौकरियों में आरक्षण मिला. इस कदम का समाज की उन जातियों ने विरोध किया जिन्हें कथित तौर पर ऊंची जाति मानी जाती है. कई जगह छात्रों ने आत्मदाह तक किया. लेकिन लालू यादव के लिए यह मौका था, जिसे उन्होंने दोनों हाथों से पकड़ा
बिहार के मतदाताओं में 52 फीसदी हिस्सा पिछड़ों का था. मंडल के फैसले ने ऊंची जातियों और पिछड़ों को आमने-सामने ला खड़ा किया. लालू यादव, जिन्होंने खुद को जातीय वर्चस्व के खिलाफ लड़ने वाला नेता बताया था, अब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ चुके थे.
मंडल ने बिहार की राजनीति की कैसे बदल दी दिशा?
आने वाले दशक में जाति का समीकरण हर मुद्दे पर हावी रहा, शासन, विकास, या चुनाव- सब कुछ इसी के इर्द-गिर्द घूमने लगा. और इसी दौर में लालू यादव की ताकत लगातार बढ़ती गई.
आडवाणी की रथ को रोककर लालू ने खेल दिया बड़ा दांव
वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर, जिनका हाल ही में निधन हुआ, ने अपनी मशहूर किताब बंधु बिहारी में लिखा कि
लालू यादव ने मंडल का जादुई डिब्बा खोला ही था कि तभी उनके हाथ एक और तोहफा आ गिरा, जो था मंदिर.
लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा, एक तरह से, वी.पी. सिंह सरकार के लिए खुली चुनौती थी. 1989 के चुनाव में भाजपा ने 85 सीटें जीती थीं और वह सरकार की सहयोगी थी. इसलिए प्रधानमंत्री विश्ननाथ प्रताप सिंह चाहकर भी यात्रा नहीं रोक सकते थे. ठाकुर लिखते हैं
“वी.पी. सिंह ने लालू यादव से कहा कि आडवाणी की रथयात्रा रोक दो.
और लालू ने यह काम पूरे जोश और नाटकीय अंदाज़ में कर दिखाया.”
23 अक्टूबर 1990 को बिहार के समस्तीपुर में आडवाणी को गिरफ्तार किया गया और फिर उन्हें बिहार–पश्चिम बंगाल सीमा के पास मसानजोर गेस्ट हाउस ले जाया गया. उसी दिन, पटना के गांधी मैदान में लालू यादव ने एक विशाल जनसभा में कहा था.
अगर इंसान ही नहीं रहेंगे तो मंदिर की घंटी कौन बजाएगा? मस्जिद में कौन नमाज़ पढ़ेगा?
मैं अपने राज्य में दंगे नहीं होने दूंगा.
चाहे सत्ता रहे या जाए, मैं समझौता नहीं करूंगा.
ठाकुर आगे लिखते हैं
रातोंरात लालू यादव राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गए. वह आदमी जिसने लालकृष्ण आडवाणी को रोका, लालू यादव ने वह किया जिससे बाकी सरकारें डरती थीं. वह देशभर के मुसलमानों और वामपंथी बुद्धिजीवियों के हीरो बन गए और अल्पसंख्यकों और दलितों के रक्षक के तौर पर उनकी पहचान बन गई.
मुस्लिम-यादव समीकरण की हो गई शुरुआत
1991 का लोकसभा चुनाव लालू यादव के ‘एमवाई' फ़ॉर्मूले की पहली परीक्षा थी और उन्होंने इसे शानदार तरीके से पास किया. अविविभाजित बिहार में जनता दल ने शानदार प्रदर्शन किया. बाकी देश में जनता दल को करारी हार मिली, लेकिन बिहार में लालू यादव का जादू बरकरार रहा. उस वक्त बिहार में पिछड़े और अति पिछड़े वर्गों की आबादी करीब 52 फीसदी थी, जबकि मुसलमान लगभग 12 फीसदी थे.
कांग्रेस लंबे समय तक सवर्ण + मुस्लिम + दलित + अति पिछड़ा वर्ग के हिस्सों पर टिके वोट बैंक के सहारे सत्ता में रहती थी.
लेकिन मंडल और मंदिर के बाद यह समीकरण पूरी तरह टूट गया.
अब लालू यादव बन चुके थे पिछड़ों और मुसलमानों दोनों के मसीहा. राजीव गांधी सरकार द्वारा राम मंदिर के शिलान्यास की अनुमति देने से मुसलमानों में नाराज़गी थी. कांग्रेस से मोहभंग के बाद उन्होंने नया ठिकाना चुना था जो था लालू यादव का जनता दल. मुस्लिम वोट पूरी तरह लालू के पाले में चला गया, और पिछड़े पहले से उनके साथ थे. नतीजा बिहार की सियासत में लालू यादव लगभग अजेय बन गए.
1995 में लालू यादव को मिली एतिहासिक जीत
1995 के विधानसभा चुनाव में लालू यादव के नेतृत्व वाले जनता दल ने 167 सीटें जीत लीं. यह उनके ‘एमवाई फ़ॉर्मूले' की सबसे बड़ी जीत थी. इसके बाद कांग्रेस लगातार मुस्लिम वोट बैंक को वापस लाने में नाकाम रही. जब लालू यादव ने जनता दल से अलग होकर राजद (RJD) बनाई, तो पार्टी ने मुस्लिम वोटों का बड़ा हिस्सा अपने पास बनाए रखा.
2020 के चुनाव में सीमांचल में MY समीकरण को मिली नई चुनौती
2020 के विधानसभा चुनाव में राजद एक बार फिर सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन के कारण महागठबंधन सत्ता से बाहर रह गया. इस चुनाव का सबसे दिलचस्प अध्याय सीमांचल क्षेत्र में लिखा गया, जहां असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM ने पांच सीटें जीतकर सबको चौंका दिया. हालांकि बाद में चार विधायक राजद में शामिल हो गए,
लेकिन यह नतीजा लालू यादव के दशकों पुराने वोट बैंक को सीधी चुनौती थी. यही वजह है कि ओवैसी के कई बार सहयोग की पेशकश करने के बावजूद राजद आज भी AIMIM को विपक्षी गठबंधन में जगह देने से हिचक रहा है.
बदलता बिहार, लेकिन कायम ‘एमवाई' की आज भी पकड़ है
1990 के दशक से लेकर अब तक बिहार की राजनीति पूरी तरह बदल चुकी है. एनडीए ने अत्यंत पिछड़े वर्ग (EBC) के वोटों में बड़ी सेंध लगाई है, और मुसलमानों ने भी अब नए राजनीतिक विकल्प तलाशने शुरू किए हैं. इसके बावजूद, ‘एमवाई फ़ॉर्मूला' अब भी राजद की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत बना हुआ है. यह वही समीकरण है जो हर बार पार्टी को बिहार की सियासत में निर्णायक स्थिति में पहुंचा देता है. अब सवाल यह है कि क्या यह फ़ॉर्मूला तेजस्वी यादव के नेतृत्व में भी उतनी ही मजबूती से काम करेगा जितना लालू यादव के दौर में करता था? इसका जवाब 14 नवंबर को आने वाले चुनावी नतीजे देंगे. तब तय होगा कि क्या बिहार में मंदिर और मंडल से जन्मा यह ‘एमवाई जादू' अब भी कायम है या वक्त के साथ इसका असर घट चुका है या खत्म हो चुका है.
इस आर्टिकल को NDTV के लिए Saikat Kumar Bose ने लिखा है. इसे NDTV इंडिया के लिए हिंदी में अनुवाद किया गया है.