Blogs | रवीश कुमार |गुरुवार दिसम्बर 21, 2017 01:11 PM IST हमने पत्रकारिता को टीआरपी मीटर का गुलाम बना दिया है. टीआरपी मीटर ने एक साज़िश की है. उसने अपने दायरे के लाखों-करोड़ों लोगों को दर्शक होने की पहचान से ही बाहर कर दिया है. कई बार सोचता हूं कि जिनके घर टीआरपी मीटर नहीं लगे हैं, वो टीवी देखने का पैसा क्यों देते हैं? क्या वे टीवी का दर्शक होने की गिनती से बेदखल होने के लिए तीन से चार सौ रुपये महीने का देते हैं. करोड़ों लोग टीवी देखते हैं मगर सभी टीआरपी तय नहीं करते हैं.