- एंजलीना एक रिफ्यूजी एथलीट हैं, जो रियो ओलिंपिक में हिस्सा ले रही हैं
- ज़िंदगी के 15 साल परिवार से दूर एक रेफ्यूजी कैंप में बिताए हैं
- ट्रैनिंग कैंप के दौरान एंजलीना की किस्मत बदल गई
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नई दिल्ली:
'मैं अपने परिवार से कई सालों से नहीं मिली हूं, उनसे बात भी नहीं की है. मुझे लगता है अगर मैं मैडल जीतूंगी, तो यह मुझे अपने परिवार से मिलने मदद करेगा. मैं अपने देश वापस जाना चाहती हूं, अपने पिता के लिए एक घर ख़रीदना चाहती हूं' यह कहना है एंजलीना लोहलीथ का, जिन्हें कि बहुत कम ही लोग जानते होंगे. एंजलीना एक रिफ्यूजी एथलीट हैं, जो रियो ओलिंपिक में हिस्सा ले रही हैं. एंजलीना की कहानी एक आम खिलाड़ी की कहानी नहीं है, दुख और पीड़ा भरी इस कहानी में एक उम्मीद भी छुपी हुई है. एंजलीना इसी उम्मीद के साथ जी रही हैं कि एक दिन एथलीट के रूप में वह नाम कमाएंगी, मेडल जीतेंगी और अपना परिवार से मिलेंगी. 
21 साल की इस एथलीट ने अपनी ज़िंदगी के 15 साल परिवार से दूर एक रेफ्यूजी कैंप में बिताए हैं. वह जब महज छह साल की थीं, तब गृह युद्ध और हिंसा की वजह से उन्हें अपना देश सूडान (अब दक्षिण सूडान) छोड़ना पड़ा. इस दौरान वह अपने परिवार से भी बिछड़ गईं. एंजलीना अब केन्या के ककुमा रिफ्यूजी कैंप में रह रही हैं और यहीं उन्होंने दौड़ने की प्रैक्टिस की. स्कूल में एंजलीना एक अच्छी धावक थीं, लेकिन उन्हें अभी तेज़ी का अंदाजा नहीं था. हालांकि ट्रैनिंग कैंप के दौरान एंजलीना की किस्मत बदल गई और उन्हें रिफ्यूजी खिलाड़ी के रूप में रियो ओलंपिक में शिरकत का मौका मिला. एंजलीना के जैसे ही दस और खिलाड़ी हैं, जो कि रिफ्यूजी कैंप से रियो पहुंचे हैं. इस बार के ओलिंपिक में इन खिलाड़ियों के लिए एक खास रिफ्यूजी टीम बनाई गई है.
युसरा मर्दिनी भी ऐसी ही एक रिफ्यूजी हैं, जिन्हें अपनी जान बचाने की खातिर देश छोड़ना पड़ा. युसरा मूलत: सीरिया की रहनी वाली हैं, जो कि भीषण गृह युद्ध से जूझ रहा है. सीरिया में युसरा के लिए तैराकी की प्रैक्टिस करना आसान नहीं था. एक बार तो प्रैक्टिस के दौरान ही वहां बमबारी होने लगी, जिसमें उनके स्विमिंग पूल का छत उड़ गया. युसरा को मजबूरन सीरिया छोड़ अपनी बहन के साथ रिफ्यूजी कैंप में शरण लेना पड़ा. युसरा और उनकी बहन जब एक नौका में सवार होकर सीरिया से ग्रीस जा रहे थे, तब बोट में ज्यादा लोग सवार होने की वजह से बोट डूबने लगा. इस दौरान उनकी तैराकी काम आई, जिसकी मदद से उन्होंने खुद की और दूसरे रिफ्यूजियों की जान बचाई.

युसरा और उनकी बहन दोनों ही अच्छी स्विमर थीं. उन्होंने समुद्र में छलांग लगाई और बोट को खींचकर किनारे तक पहुंचाया. उन दोनों ने मिलकर करीब 20 लोगों की जान बचाई. युसरा अभी जर्मनी की राजधानी बर्लिन स्थित एक रिफ्यूजी कैंप में रह रही हैं और यहीं से उन्होंने रियो ओलिंपिक के लिए क्वालीफाई किया. युसरा ने अपनी तैराकी कौशल से कई लोगों को प्रभावित किया है और अगर किस्मत ने साथ दिया तो वह स्विमिंग में पदक भी जीत सकती हैं.
पोपुले मिसेंगा और योलांडा मबिका जुडो खिलाड़ी हैं. रियो ओलिंपिक में भाग ले रहे ये दोनों खिलाड़ी रियो के ही एक रिफ्यूजी कैंप में रह रहे हैं. मूल रूप से कांगो के नागरिक इन दोनों खिलाड़ी को गृह युद्ध की वजह से अपना देश छोड़ना पड़ा. मबिका को अपने परिवार को आखिरी बार देखे करीब 18 साल हो गए हैं. वहीं मिसेंगा की कहानी भी काफी दर्दनाक है. वह जब सिर्फ छह साल के थे, तब उनकी मां की हत्या हो गई. मिसेंगा को अपनी जान बचाने के लिए कई दिनों तक जंगल में छुपना पड़ा. फिर कुछ लोगों की नजर उन पड़ी, जो कि उन्हें किंशासा कैंप ले आए. 
मिसेंगा और मबिका ने इसी कैंप में जुडो सीखा। यहां अगर वे कोई प्रतियोगिता हार जाते, तो उन्हें काफी यातनाएं दी जाती थी। उन्हें कमरे में बंद कर दिया जाता और खाना भी नहीं दिया जाता. इन्हीं से तंग आकर ये दोनो खिलाड़ी वर्ष 2013 के वर्ल्ड जुडो चैंपियनशिप के दौरान होटल छोड़कर भाग गए और कई जगह घूमने के बाद रियो के फावेला इलाका में पहुंचे, जो कि यहां का सबसे बड़ा स्लम है. हालांकि यहां पहुंचने के बाद भी उनका संघर्ष कम नहीं हुआ। बड़े ड्रग माफिया से भरे इस इलाके में किसी तरह उन्होंने अपनी प्रक्टिस जारी रखी और आज ओलिंपिक टीम के लिए चुने गए हैं. राफेल सिल्वा भी इसी इलाके की रहनी वाली हैं, जिन्होंने रियो ओलिंपिक में ब्राज़ील के लिए जुडो प्रतियोगिता में पहला गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रच दिया. 
योनास किंडे भी एक रिफ्यूजी मैराथन धावक हैं, जो रियो ओलिंपिक में भाग ले रहे हैं. अपना देश इथोपिया छोड़ चुके किंडे पिछले पांच सालों से लक्जमबर्ग में शरणार्थी जीवन बिता रहे हैं. लक्जमबर्ग में भी किंडे को काफी संघर्ष करना पड़ रहा है और यहां वह टैक्सी चलाकर गुजारा कर रहे हैं. हालांकि वह खुश हैं कि यहां कम से कम इथोपिया जैसे हालात तो नहीं. किंडे लक्जमबर्ग में रहते हुए कई मैडल जीत चुके हैं, लेकिन रिफ्यूजी होने की वजह से उन्हें किसी भी देश की तरफ से खेलने का मौका नहीं मिल पा रहा था। हालांकि इस बार ओलिंपिक संघ के प्रयास की वजह से ओलिंपिक में खेलने का उनका सपना साकार हुआ और आज वह रिफ्यूजी टीम का हिस्सा बन रियो पहुंचे हैं.

21 साल की इस एथलीट ने अपनी ज़िंदगी के 15 साल परिवार से दूर एक रेफ्यूजी कैंप में बिताए हैं. वह जब महज छह साल की थीं, तब गृह युद्ध और हिंसा की वजह से उन्हें अपना देश सूडान (अब दक्षिण सूडान) छोड़ना पड़ा. इस दौरान वह अपने परिवार से भी बिछड़ गईं. एंजलीना अब केन्या के ककुमा रिफ्यूजी कैंप में रह रही हैं और यहीं उन्होंने दौड़ने की प्रैक्टिस की. स्कूल में एंजलीना एक अच्छी धावक थीं, लेकिन उन्हें अभी तेज़ी का अंदाजा नहीं था. हालांकि ट्रैनिंग कैंप के दौरान एंजलीना की किस्मत बदल गई और उन्हें रिफ्यूजी खिलाड़ी के रूप में रियो ओलंपिक में शिरकत का मौका मिला. एंजलीना के जैसे ही दस और खिलाड़ी हैं, जो कि रिफ्यूजी कैंप से रियो पहुंचे हैं. इस बार के ओलिंपिक में इन खिलाड़ियों के लिए एक खास रिफ्यूजी टीम बनाई गई है.
युसरा मर्दिनी भी ऐसी ही एक रिफ्यूजी हैं, जिन्हें अपनी जान बचाने की खातिर देश छोड़ना पड़ा. युसरा मूलत: सीरिया की रहनी वाली हैं, जो कि भीषण गृह युद्ध से जूझ रहा है. सीरिया में युसरा के लिए तैराकी की प्रैक्टिस करना आसान नहीं था. एक बार तो प्रैक्टिस के दौरान ही वहां बमबारी होने लगी, जिसमें उनके स्विमिंग पूल का छत उड़ गया. युसरा को मजबूरन सीरिया छोड़ अपनी बहन के साथ रिफ्यूजी कैंप में शरण लेना पड़ा. युसरा और उनकी बहन जब एक नौका में सवार होकर सीरिया से ग्रीस जा रहे थे, तब बोट में ज्यादा लोग सवार होने की वजह से बोट डूबने लगा. इस दौरान उनकी तैराकी काम आई, जिसकी मदद से उन्होंने खुद की और दूसरे रिफ्यूजियों की जान बचाई.

युसरा और उनकी बहन दोनों ही अच्छी स्विमर थीं. उन्होंने समुद्र में छलांग लगाई और बोट को खींचकर किनारे तक पहुंचाया. उन दोनों ने मिलकर करीब 20 लोगों की जान बचाई. युसरा अभी जर्मनी की राजधानी बर्लिन स्थित एक रिफ्यूजी कैंप में रह रही हैं और यहीं से उन्होंने रियो ओलिंपिक के लिए क्वालीफाई किया. युसरा ने अपनी तैराकी कौशल से कई लोगों को प्रभावित किया है और अगर किस्मत ने साथ दिया तो वह स्विमिंग में पदक भी जीत सकती हैं.
पोपुले मिसेंगा और योलांडा मबिका जुडो खिलाड़ी हैं. रियो ओलिंपिक में भाग ले रहे ये दोनों खिलाड़ी रियो के ही एक रिफ्यूजी कैंप में रह रहे हैं. मूल रूप से कांगो के नागरिक इन दोनों खिलाड़ी को गृह युद्ध की वजह से अपना देश छोड़ना पड़ा. मबिका को अपने परिवार को आखिरी बार देखे करीब 18 साल हो गए हैं. वहीं मिसेंगा की कहानी भी काफी दर्दनाक है. वह जब सिर्फ छह साल के थे, तब उनकी मां की हत्या हो गई. मिसेंगा को अपनी जान बचाने के लिए कई दिनों तक जंगल में छुपना पड़ा. फिर कुछ लोगों की नजर उन पड़ी, जो कि उन्हें किंशासा कैंप ले आए.

मिसेंगा और मबिका ने इसी कैंप में जुडो सीखा। यहां अगर वे कोई प्रतियोगिता हार जाते, तो उन्हें काफी यातनाएं दी जाती थी। उन्हें कमरे में बंद कर दिया जाता और खाना भी नहीं दिया जाता. इन्हीं से तंग आकर ये दोनो खिलाड़ी वर्ष 2013 के वर्ल्ड जुडो चैंपियनशिप के दौरान होटल छोड़कर भाग गए और कई जगह घूमने के बाद रियो के फावेला इलाका में पहुंचे, जो कि यहां का सबसे बड़ा स्लम है. हालांकि यहां पहुंचने के बाद भी उनका संघर्ष कम नहीं हुआ। बड़े ड्रग माफिया से भरे इस इलाके में किसी तरह उन्होंने अपनी प्रक्टिस जारी रखी और आज ओलिंपिक टीम के लिए चुने गए हैं. राफेल सिल्वा भी इसी इलाके की रहनी वाली हैं, जिन्होंने रियो ओलिंपिक में ब्राज़ील के लिए जुडो प्रतियोगिता में पहला गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रच दिया.

योनास किंडे भी एक रिफ्यूजी मैराथन धावक हैं, जो रियो ओलिंपिक में भाग ले रहे हैं. अपना देश इथोपिया छोड़ चुके किंडे पिछले पांच सालों से लक्जमबर्ग में शरणार्थी जीवन बिता रहे हैं. लक्जमबर्ग में भी किंडे को काफी संघर्ष करना पड़ रहा है और यहां वह टैक्सी चलाकर गुजारा कर रहे हैं. हालांकि वह खुश हैं कि यहां कम से कम इथोपिया जैसे हालात तो नहीं. किंडे लक्जमबर्ग में रहते हुए कई मैडल जीत चुके हैं, लेकिन रिफ्यूजी होने की वजह से उन्हें किसी भी देश की तरफ से खेलने का मौका नहीं मिल पा रहा था। हालांकि इस बार ओलिंपिक संघ के प्रयास की वजह से ओलिंपिक में खेलने का उनका सपना साकार हुआ और आज वह रिफ्यूजी टीम का हिस्सा बन रियो पहुंचे हैं.
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