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अंतरिक्ष में जीवन, खाना, टॉयलेट... शुभांशु शुक्ला की यात्रा से जुड़े अहम सवाल और आसान भाषा में जवाब

एक्स-4 मिशन भारत की अंतरिक्ष यात्रा में एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि शुभांशु शुक्ला चार दशकों में अंतरिक्ष की यात्रा करने वाले पहले भारतीय बनेंगे, जो राकेश शर्मा के नक्शेकदम पर चलने वाले हैं, जिन्होंने 1984 में सोवियत अंतरिक्ष यान में उड़ान भरी थी.

मौसम की स्थिति के कारण, भारतीय गगनयात्री को अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन भेजने के लिए एक्सिओम-4 मिशन का प्रक्षेपण 10 जून 2025 के बजाय 11 जून 2025 के लिए स्थगित कर दिया गया है. प्रक्षेपण का टारगेट समय अब 11 जून 2025 को (भारतीय समयानुसार) शाम 5:30 बजे है. स्पेसएक्स का फाल्कन-9 रॉकेट इस मिशन को अंजाम तक पहुंचाएगा. मगर, साइंस की ज्यादा पढ़ाई नहीं करने वालों के लिए अंतरिक्ष की बातें समझना बहुत मुश्किल हो जाता है. इसीलिए एनडीटीवी के पल्लव बागला से इस अंतरिक्ष यात्रा के बारे में आसान भाषा में समझाने के लिए कहा गया.  पल्लव बागला एनडीटीवी के लिए अंतरिक्ष से जुड़ी खबरें कवर करते हैं. उन्होंने अंतरिक्ष के बारे में ऐसी-ऐसी बातें बताईं, जिसे आप जानने के बाद दूसरे को बताएंगे तो वो आपको वैज्ञानिक से कम नहीं समझेगा.

प्रश्न- स्पेस शटल में चढ़ते कैसे हैं एस्ट्रानॉट?

पल्लव बागला- देखिए, जिस रॉकेट से शुभांशु शुक्ला जा रहे हैं अंतरिक्ष में, उसकी ऊंचाई कुतुब मीनार इतनी है. टेस्ला गाड़ी में बैठकर एस्ट्रानॉट अपना अंतरिक्ष वाला सूट पहनकर आएंगे. आपको बता दूं कि फाल्कन 9 का हर प्रक्षेपण अब तक सफल रहा है. ये एलन मस्क की कंपनी का है. तो इसलिए शुभांशु शुक्ला को लेकर मन में ये मत रखिए कि वो रिस्क लेकर जा रहे हैं. रॉकेट में जाना अपने-आप में एक रिस्क है, लेकिन इसकी सफलता का इतिहास 99.6 फीसदी है. एस्ट्रोनॉट्स को रॉकेट के नीचे से ऊपर एक लिफ्ट लेकर जाती है. उस लिफ्ट के अंदर जो बटन लगा होता है, उस पर लिखा होता टू स्पेस. तो बस ये लोग टेस्ला से उतरेंगे और टू स्पेस का लिफ्ट में बटन दबाएंगे और रॉकेट के ऊपरी हिस्से में पहुंच जाएंगे. सभी एस्ट्रोनॉट एक साथ लिफ्ट के माध्यम से ड्रैगन में पहुंच जाएंगे. एस्ट्रानॉट के केबिन के ऊपरी हिस्से को ड्रैगन कहा जाता है. अभी इसका नाम नहीं रखा गया है. शुभांशु की टीम जब ड्रैगन में पहुंचेगी तो एक शब्द में इसका नाम रखेगी. यही नाम इस ड्रैगन का हमेशा के लिए हो जाएगा. ऐसा मौका कुछ ही एस्ट्रोनॉट को मिलता है. जैसे जब सुनीता विलियम्स स्टारलाइनर से अंतरिक्ष में गईं थीं तो उन्होंने भी अपने ड्रैगन का नाम रखा था.  फॉल्कन 9 भारी-भरकम रॉकेट है. ये दो स्टेज का रॉकेट है. करीब 8 मिनट में ये अंतरिक्ष में पहुंच जाएंगे. 

प्रश्न- रॉकेट जब छूटता है तो हम देखते हैं कि नीचे बड़ी आग लगी होती है तो ऊपर बैठे एस्ट्रोनॉट कैसा फील करते हैं. क्या उन्हें गर्मी लगती है. क्या वो बाहर का नजारा देख पाते हैं?

पल्लव बागला- एस्ट्रोनॉट के दोनों साइड खिड़की होती है. शुभांशु शुक्ला और पैगी व्हिटसन वो बीच में बैठेंगे क्योंकि पैगी कमांडर हैं और शुभांशु पायलट हैं. ये भी बड़ी बात है कि शुभांशु पायलट हैं. एयरक्राफ्ट में जैसे पायलट और को-पायलट होता है, वैसे ही रॉकेट में भी होता है. तो साइड वाले एस्ट्रोनॉट खिड़की से नजारा देख पाएंगे. मुझे जो बताया गया है कि उसके अनुसार, जब रॉकेट ऊपर जाता है तो ड्रैगन में बहुत तेज घड़घड़ाहट की आवाज आती है. इसके साथ ही ग्रैविटी का फोर्स इतना ज्यादा होता है कि उनका भार बहुत ज्यादा बढ़ जाता है. तो ड्रैगन में आवाज भी होती है, सनसनी भी होती है, गर्मी भी लगती है, मगर होता एयरकंडीशन है. उसके अंदर एस्ट्रोनॉट के लिए कोई खतरा नहीं होता है. मान लीजिए कि रॉकेट फट जाए तो क्रू स्केप सिस्टम होता है, उससे वो छूट कर बाहर आ सकते हैं. रॉकेट में 300 टन से ज्यादा ईंधन होता है. तो ये एटम बम या मिसाइल के ऊपर बैठना होता है. हालांकि, ये सारा रिस्क कैलकुलेटेड होता है और एस्ट्रोनॉट पैगी व्हिटसन से जब एनडीटीवी ने इंटरव्यू किया था तो उन्होंने बताया था कि ये रिस्क हम जानते हैं, लेकिन सारी चीजें तय करके की जाती हैं.  

प्रश्न- बस और कार में सफर करते समय थक जाने पर हम अपने पैर फैला लेते हैं आराम करने के लिए. क्या अंतरिक्ष यात्री ऐसा कर पाते हैं?

पल्लव बागला- शुभांशु शुक्ला जिस रॉकेट में जा रहे हैं, वो ऊबर की तरह समझिए. भारत ने 550 करोड़ रुपये खर्च करके ये टिकट खरीदी है. तो ये 550 करोड़ रुपये की टिकट शुभांशु शुक्ला के अंतरिक्ष में जाने और आने के लिए खर्च किए गए हैं. इस क्रू ड्रैगन में एक बार में 7 लोग जा सकते हैं, लेकिन 4 ही इस बार जा रहे हैं. तो वो रिक्लाइनर की तरह बैठे होते हैं, और उनकी पोजीशन ऐसी होती है कि जी फोर्स का असर उनकी बॉडी पर सबसे कम असर हो. ये बंधे होते हैं ताकी गिरे नहीं. एक फ्रेंच एस्ट्रोनॉट थॉमस पेस्केट ने एनडीटीवी को दिए इंटरव्यू में बताया था कि उनके पैर अंतरिक्ष यात्रा में बैठे-बैठे अकड़ गए थे. वो साढ़े छह फीट के हैं. रूसी रॉकेट में कंफर्ट कम होता है. 

प्रश्न- कितने घंटे पैर मोडकर बैठना होगा?

पल्लव बागला- शुभांशु शुक्ला की टीम स्पेस स्टेशन पर 28 घंटे में पहुंचेंगे. मगर पूरे 28 घंटे उनको घुटने मोड़कर बैठने की जरूरत नहीं है. एस्ट्रोनॉट सिर्फ रॉकेट के अंतरिक्ष के अंदर पहुंचने तक अपने सूट पहनकर रहते हैं. उसके बाद वो उसे उतारकर एक तरफ रख देते हैं. अंतरिक्ष स्टेशन पर उतरते समय वापस उन्हें अपना सूट पहनना होता है. स्पेसएक्स का सूट तो अल्ट्रा मॉडर्न सूट है. मगर सुनने में आता है कि ये थोड़े टाइट होते हैं. रूसी सूट वो थोड़े कंफर्टेबल होते हैं. ये थोड़े फैशन के लिहाज से बनाए गए हैं. इस सूट की वास्तविक कीमत तो नहीं पता लेकिन ये करोड़ों रुपयों की होती होगी. 

प्रश्न- क्या हर यात्रा के लिए अलग-अलग सूट बनता है या वहीं यूज होता है?

पल्लव बागला- हर यात्रा के लिए ही नहीं, हर एस्ट्रोनॉट के लिए अलग सूट होता है. जब सुनीता विलियम्स गईं थीं बोइंग स्टारलाइनर से गई स्पेस स्टेशन पर तो वापस वो क्रू ड्रैगन पर आईं थीं. तो उनके लिए दो अलग-अलग सूट थे. एक एयरक्राफ्ट का सूट आ तौर पर दूसरे में यूज नहीं होता. हर एस्ट्रोनॉट के लिए ये टेलर मेड होता है, जैसे हम और आप अपने कपड़े सिलवाने टेलर के पास जाते हैं, उसी तरह वो कस्टम मेड होते हैं. 

प्रश्न- शुभांशु शुक्ला अपने साथ अंतरिक्ष में क्या-क्या लेकर जा रहे हैं?

पल्लव बागला- शुभांशु शुक्ला पर्सनल क्या ले जा रहे हैं, ये तो नहीं पता लेकिन उन्होंने जो मुझे बताया कि वो जो हमारे पहले एस्ट्रोनॉट थे राकेश शर्मा उनके लिए कुछ स्पेशल आइटम लेकर जा रहे हैं. उनकी याद के लिए. शुभांशु पैदा हुए 1985 में और राकेश शर्मा अंतरिक्ष गए थे 1984 में. कहते हैं कि उन्होंने राकेश शर्मा की फ्लाइट के बारे में सिर्फ सुना था, देखा नहीं था. इसके अलावा शुभांशु खाने का सामान, कपड़े और एक्सपेरिमेंट के लिए जरूरी आइटम लेकर जाएंगे. 

प्रश्न- शुभांशु अंतरिक्ष में खाएंगे क्या?

पल्लव बागला- शुभांशु पूरे समय के लिए अपने साथ जो खाना ले जाएंगे, वो नासा की तरफ से स्पेशल पैकिंग में होता है. भारतीय व्यंजनों में मूंग दाल का हलवा, गाजर का हलवा, राजमा-चावल, जयपुरी मिक्स वेज, चावल के साथ अन्य नासा की तरफ दी गई खाने की चीजें ले जाएंगे. अंतरिक्ष में पहले 7 एस्ट्रोनॉट मौजूद हैं, और 4 ये जा रहे हैं. तो सभी 11 वहां मिलकर अंतरिक्ष में इस खाने से पार्टी करेंगे. 

प्रश्न- सुनने में आया है कि अंतरिक्ष में 7 एक्सपेरिमेंट होंगे. इससे हमें क्या फायदा होगा?

पल्लव बागला- विज्ञान की चीजों से हर समय फायदा नहीं ढूंढना चाहिए. जो 7 एक्सपेरिमेंट किए जाएंगे वो खास भारत के वैज्ञानिकों ने डिजाइन किए हैं. ये सभी बेसिक एक्सपेरिमेंट हैं. बहुत मुश्किल वाले नहीं हैं. एक है स्प्राउटिंग एक्सपेरिमेंट. जैसे हम रात में चना भिगोकर उसे उगाकर सुबह खाते हैं, वैसे ही ये मेथी और मूंग ले जा रहे हैं. एक डब्बे में ये जा रहा है, उसमें पानी डालेंगे और फिर वो स्प्राउट होगा. फिर वो वैसे ही पैक होकर वापस आ जाएगा और यहां देखा जाएगा कि उसकी ग्रोथ कैसी रही. कुछ भारतीय फसलों के बीजों को भी ले जाया जा रहा है. सिर्फ उन्हें वहां ले जाकर वापस यहां लाकर बोया जाएगा. ऐसी ही कई चीजें हैं. इसका मकसद बस ये जानना है कि अंतरिक्ष में कमी किन चीजों की है. 

प्रश्न- डायबिटिज पेशेंट्स के लिए कुछ एक्सपेरिमेंट होना है क्या?

पल्लव बागला- डायबिटिज का जो एक्सपेरिमेंट है वो यूएई की एक कंपनी और अस्पताल भेज रहे हैं. इस एक्सपेरिमेंट में इंसुलिन भेजी जा रही है और इसे लगाने वाले पेन भेजे जा रहे हैं. इसके साथ ग्लूकोज पाइप भी ले जा रहे हैं. चारों में से किसी एक अंतरिक्ष यात्री को वो ग्लूकोज पाइप लगाया जाएगा, उससे उनकी मॉनीटरिंग होगी. अभी उस अंतरिक्ष यात्री का नाम नहीं बताया गया है, लेकिन इंसुलिन किसी को नहीं दिया जाएगा. क्योंकि इनमें से कोई डायबिटिक ही नहीं है. अगर कोई डायबिटिक होता है तो वो अंतरिक्ष यात्री नहीं बन सकता है. 

प्रश्न- धरती पर जैसे सुबह-शाम होती है, अंतरिक्ष में क्या होता है?

पल्लव बागला- आपको जानकर हैरानी होगी ये जानकर कि अंतरिक्ष में एक दिन में 16 बार सन राइज और सन सेट दिखता है. क्योंकि 28800 किलोमीटर की रफ्तार से वो धरती का चक्कर लगाता है. हर 90 मिनट में एक सन राइज और एक सनसेट होता है. तो वहां बाहर देखकर सोना-जागना नहीं कर सकता कि रात हो गई या सुबह हो गई. इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर जो टाइम यूज किया जाता है वो लंदन टाइम यूज किया जाता है. इसे यूनिवर्सल टाइम बोला जाता है. तो अंतरिक्ष यात्री का दिन लंदन टाइम से शुरू और खत्म होता है. योग दिवस पर शायद हमें अंतरिक्ष से योग करते तस्वीरें मिलें. 

प्रश्न- मल-मूत्र त्याग कैसे करते हैं एस्ट्रोनॉट?

पल्लव बागला- जैसे हम धरती पर बैठकर मल-मूत्र का त्याग करते हैं तो अंतरिक्ष में हमें कोई चीज पकड़ कर लटकना होता है और फिर सकिंग के जरिए वो मल-मूत्र एक जगह एकत्रित होता है. वहां सारी चीजों को रीसायकल किया जाता है. वही चीजें दोबारा इस्तेमाल की जाती है. इशारा समझ लीजिए.     
 

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