
- मुसलमान अशराफ, अजलाफ, अर्जल और पसमांदा में बंटे हुए हैं. यह उनके वोटिंग पैटर्न को प्रभावित करता है.
- जहां मुसलमानों आबादी अधिक है, वहां वे मुस्लिम उम्मीदवार या स्थानीय हितों को साधने वाली पार्टी को वोट देते हैं.
- 2015 और 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में अधिकांश मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट दिया था.
भारत में जाति केवल हिंदुओं में नहीं है, बल्कि मुसलमानों में भी इसे प्रमुखता से बरता जाता है. मुसलमान आमतौर पर अशराफ, अजलाफ, अर्जल और पसमांदा जैसे समूहों में बंटे हुए हैं. मुसलमान आमतौर पर रणनीतिक रूप से मतदान करते हैं. इसके साथ ही यह गणित और बीजगणित का खेल भी है. भारतीय चुनाव में एक मिथक फैला है, जो बिहार की गंगा नदी की तरह सहज और जटिल दोनों है. वह यह है कि 'मुस्लिम वोट' एक एकीकृत चीज है, जिसे आसानी से गिना जा सकता है. उसे एक पार्टी के निशान के साथ चिह्नित किया जा सकता है. पटना के फुलवारी शरीफ में देर रात घूमें, सिवान में सुबह एक चाय की दुकान पर रुकें, मधुबनी के साकरी या ग्लेसन बाजार में लोगों से मिलें या किशनगंज की छोटी गलियों में टहलें, तो इस मिथक को टूटते देख सकते हैं. वोट देना रणनीतिक और व्यक्तिगत होता है. यह अतीत और भविष्य, शिकायतों और उम्मीदों के बीच का संवाद है. यह अंकगणित भी है और बीजगणित भी.
मुसलमानों में जातियां
बिहार की यात्रा के दौरान आप मुसलमानों की जाति को महसूस कर सकते हैं. जाति अल्पसंख्यक समुदाय को भी बांटती है, जैसे अशराफ, अजलाफ, अर्जल और पसमांदा. यह उनके वोटिंग पैटर्न को प्रभावित भी करती है. फारसी शब्द पसमांदा एक नया राजनीतिक पहलू है. सीमांचल और मिथिलांचल के बिखरे हुए भूगोल में संख्याएं खेल के नियम बदल देती हैं. बिहार में 'मुसलमान कैसे वोट करते हैं?' यह एक ऐसा सवाल है, जिसके कई जवाब हो सकते हैं. मुसलमान अपनी जाति और निर्वाचन क्षेत्र में अपनी संख्यात्मक शक्ति के मुताबिक वोट करते हैं.
अल्पसंख्यकों के वोटिंग पैटर्न का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञ दो व्यावहारिक और उपयोगी नियम बताते हैं.इसमें सबसे अच्छा काम येल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैरी डब्लू ब्लेयर ने किया था. वो अब बकनेल विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. उन्होंने बिहार में जाति और धर्म के अंतर्संबंध का पता लगाया था. उन्होंने लिखा है, बिहार में मुस्लिम मतदान जातिगत विभाजन और संख्या के आधार पर आकार लेता है. उनका मानना है कि जहां मुसलमान अच्छी खासी संख्या में हैं, वे अक्सर एक मुस्लिम उम्मीदवार या ऐसी पार्टी का समर्थन करेंगे जो उनके स्थानीय हितों (सीमांचल) की रक्षा करने में सबसे अधिक सक्षम लगता है, वहीं जहां वे संख्या में कम हैं, वहां उनकी प्राथमिकताएं बहुसंख्यक आबादी के मुताबिक ही होती हैं, ऐसी जगहों पर वो अपनी सामुदायिक पहचान से अधिक व्यक्तिगत संबंधों की तरजीह देते हैं. वहीं मुसलमान जहां एक महत्वपूर्ण वर्ग हैं (20 से 30 फीसदी के बीच), वे एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी को वोट देते हैं.

बिहार में चुनाव आयोग की ओर से कराए गए विशेष पुनरीक्षण अभियान में भाग लेते मतदाता.
हार्वर्ड में पढ़ाने वाले फयाद एली राष्ट्रीय परिदृश्य से एक अलग, पूरक पैटर्न पर जोर देते हैं. वो लिखते हैं कि 2019 के बाद से भारतीय मुसलमानों ने राष्ट्रीय विकल्प के रूप में बीजेपी के खिलाफ वोट करने की एक मजबूत प्रवृत्ति दिखाई है.
महागठबंधन के पक्ष में एकजुट मुसलमान
साल 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में, 80 फीसद मुसलमानों ने महागठबंधन (राजद, कांग्रेस और जद(यू)) को वोट दिया था, क्योंकि नीतीश कुमार ने राजद और कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था. वहीं 2020 के विधानसभा चुनाव में, जब नीतीश कुमार ने नए एनडीए गठबंधन में बीजेपी के साथ गठबंधन किया था और सीमांचल में एआईएमआईएम एक कारक थी, तब 76 फीसदी मुसलमानों ने महागठबंधन को वोट दिया था. वहीं 2015 में केवल आठ फीसदी मुसलमानों ने एनडीए को वोट दिया था. साल 2020 के चुनाव में केवल पांच फीसदी मुसलमानों ने एनडीए के पक्ष में वोट दिया था. ये दोनों नजरिए विरोधाभासी नहीं हैं, एक स्थानीय अंकगणित है तो दूसरा राष्ट्रीय मनोविज्ञान. साल 2014 और 2019 में उत्तर भारत में बीजेपी की भारी बढ़त को देखते हुए, 2015 के बाद से बिहार में बीजेपी के खिलाफ रणनीतिक रूप से मुस्लिम वोटों का एकीकरण तेजी से हुआ.
बूथ के अंकगणित और देश के मनोविज्ञान का यह द्वंद बताता है कि बिहार आसान कहानियों का विरोध क्यों करता है. सीमांचल (किशनगंज-कटिहार-अररिया-पूर्णिया) जैसी जगहें हैं, जहां मुस्लिम आबादी अधिक है, वो अलग परिणाम देती है. सालव 2020 के चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने सीमित सीटों पर चुनाव लड़ा. उसे सीमांचल में पांच सीटें मिलीं. इससे यह पता चलता है कि बिहार में इलाके भी हैं, जहां मुस्लिम पहचान को एक स्वतंत्र ताकत के रूप में एक किया जा सकता है. यहां ब्लेयर की परिकल्पना सटीक साबित हुई. लेकिन एआईएमआईएम के पांच में से चार विधायक बाद में राजद में शामिल हो गए.
इस बार कैसे वोट करेगा मुसलमान
ऐसे में सवाल उठता है कि नवंबर 2025 में क्या होगा. क्या बिहार के मुसलमान महागठबंधन (राजद-कांग्रेस-वामदल) के पीछे एकजुट होंगे या ओवैसी की एआईएमआईएम के लिए बंट जाएँगे? इन सवालों का ईमानदार जवाब यह है, दोनों ही परिदृश्य संभव हैं. लेकिन इनमें से कौन सा होगा, यह आपके इस विश्वास पर निर्भर करता है कि आप अंकगणित और मनोविज्ञान को कैसे जोड़ते हैं. हालांकि, मुसलमान एआईएमआईएम की तुलना में महागठबंधन को ज्यादा वोट देंगे. आईसीएसएसआर के पूर्व अध्यक्ष, दिवंगत प्रोफेसर जावीद आलम ने सही कहा था, ''आजादी के बाद से, मुसलमान, मुस्लिम नेताओं के नेतृत्व वाली छोटी मुस्लिम पार्टियों की तुलना में हिंदू नेताओं के नेतृत्व वाली मुख्यधारा की धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पार्टियों को ज्यादा वोट देते हैं."

नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में मुसलमानों का एक तबका बीजेपी की ओर आकर्षित हुआ है.
इस्लाम की जातियां और पसमांदा का उदय
विशेषज्ञ जब मुसलमानों में 'जाति' की बात करते हैं, तो वे हिंदू जातियों को इस्लाम पर थोप नहीं रहे होते है, वे दक्षिण एशियाई मुस्लिम समाज में बहुत पहले से मौजूद सामाजिक स्तरीकरण को देख रहे होते हैं. इस लिहाज से, दक्षिण एशियाई मुसलमान पश्चिम एशिया के मुसलमानों से अलग हैं. बाहर से आए वंशों को अशरफ कहा जाता है. कारीगरों और धर्म परिवर्तन कर मुसलमान बने लोगों को अजलाफ कहा जाता है और हाशिये पर रह रहे मुसलमानों को अरजाल कहा जाता है. हाल के सालों में एक राजनीतिक शब्दावली 'पसमांदा' ने अजलाफ और अरजाल को एक साथ लाकर पिछड़े वर्ग की पहचान दी है.
यह राजनीतिक रूप से क्यों मायने रखता है? क्योंकि पसमांदा पहचान कुछ मुसलमानों को सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों के रूप में पेश करती है. जो राजनीतिक दल इन समूहों को आरक्षण का लाभ, नौकरी या सम्मान का वादा करता है, वे कभी-कभी धार्मिक एकजुटता की आड़ में जाति और लाभ की राजनीति के आधार पर वोट हासिल कर सकते हैं.
मुस्लिम वोट बैंक का मिथक
यह मिथक आमतौर पर देखने से इसलिए नहीं टूटता क्योंकि मुसलमान मनमौजी होते हैं, बल्कि इसलिए टूटता है कि उनकी पसंद जाति, क्षेत्र, स्थानीय प्रभावशाली लोगों, किसी खास चुनाव क्षेत्र में उनकी संख्या और देश के मूड पर तय होती है. आइए देखते हैं कि इसके तीन निष्कर्ष क्या हैं.
1. मुस्लिम मतदाता आंतरिक रूप से बंटे हुए हैं. अशराफ, अजलाफ, अरजाल का वर्णक्रम और पसमांदा पहचान की राजनीति का मतलब है कि अलग-अलग वर्गों की अलग-अलग प्राथमिकताएं हैं. मुसलमानों को एक इकाई मान लेने की कोई भी रणनीति राजनीतिक तौर पर फेल हो जाएगी.
2. संख्याएं मायने रखती हैं और भूगोल भी. सीमांचल में मुस्लिमों की आबादी एक विशिष्ट राजनीतिक दल (एआईएमआईएम) को जीतने और मुकाबले को नया रूप देने का मौका देता है. अन्य जगहों पर, बिखरी हुई जनसांख्यिकी का अर्थ है स्थानीय नेताओं और जाति-आधारित पहुंच (जदयू और बीजेपी के कुछ कदम) परिणामों को निर्धारित करते हैं.
3- राष्ट्रीय स्तर के नैरेटिव स्थानीय मुद्दों पर हावी हो जाते हैं. 2019 से मुस्लिम वोटर राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी के खिलाफ एकजुट हो रहा है. पसमांदा मुस्लिम वोटर आरक्षण, नौकरी और सम्मान के बारे में चिंतित है. जबकि अन्य मुसलमान वोटरों में बीजेपी विरोधी भावना प्रबल रहती है.

'मुस्लिम वोट-बैंक' का मिथक उतना झूठा नहीं जितना अधूरा है. यह एक अधूरा नक्शा है, जो जाति और क्षेत्र की उन रूपरेखाओं को छोड़ देता है जो वास्तव में राजनीतिक परिदृश्य बनाती हैं. इसलिए बिहार के मुस्लिम वोटों का विश्लेषण करना कई मानचित्रों को एक साथ पढ़ने जैसा है, जैसे जाति का नक्शा, क्षेत्रीय नक्शा, चुनाव क्षेत्र में उनकी संख्या और राष्ट्रीय मूड. ऐसे में यह भी याद रखना चाहिए कि राजनीतिक जीवन चुनावी अंकगणित की तरह ही रसोईघरों और मस्जिदों में भी हल किया जाता है.
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