प्रकृति प्रेमी और शहरवासी - क्या दोनों होना संभव है?

महामारी के समय घर पर रहते हुए मेरा नज़रिया हर हरे पत्ते की और बदला और महसूस हुआ कि घने जंगल सा पूर्ण अनुभव न सही, किन्तु ये सुक्ष्म पौधे भी हमें प्रकृति के नज़दीक होने का आभास दे सकते है. मैंने महसूस किया कि अपनी खिड़की पर समय बिताना और पौधों को ताकना समय के साथ उनकी पत्ती और तने के स्वरूप में वृद्धि और बदलाव को देखना, मुझे प्रकृति और जीवन में संतोष पाने की बहुत जरूरी समझ दे रहा था.

प्रकृति प्रेमी और शहरवासी - क्या दोनों होना संभव है?

शहर में भी प्रकृति के करीब रहना असंभव तो नहीं....

मैंने देहरादून की घाटी में लगभग सात वर्ष बिताए हैं, जहां मैं एक परिसर के अंदर निवास करती थी. इस परिसर में प्राकृतिक वनस्पतियों और साल के जंगलों को अपने सभी गैर-कंक्रीट क्षेत्रों पर बरकरार रखा गया था. प्रकृति, हरियाली, पक्षी, तितलियां, जुगनू, छोटे स्तनपायी जैसे मुश्क बिलाव, जंगली नेवले और सर्दियों के सूरज में सरीसृप मुझे बिना किसी प्रयास के उपलब्ध थे. अपने शहर कोलकाता वापस जाने पर, मुझे कुछ समय लगा अपने नए वातावरण के साथ समायोजित होने में जैसे कि आमतौर पर होता है, शहरों में खुले मैदान और हरियाली तो नहीं होती है, उल्टा शहरी ज़िन्दगी काफी भागम-भाग भरी होती है. एक शहरवासी होते हुए, प्रकृति के नज़दीक जाने के जितने मौके हो सकते हैं, मैं उन्हें तलाशने लगी. पार्क, झीलों, पेड़ों से पंक्तिबद्ध रास्तों पर उपलब्ध हरियाली एवं फूलों की छोटी खुराक पर मेरा ध्यान गया और मैंने पाया कि हमारा नज़रिया हमारी रुचि के अनुसार बदल सकता है.

एक आम भारतीय शहर, यदि बहुत अधिक नहीं तो निश्चित रूप से चंपा, बोगनविलिया, कृष्ण चुरा, राधा चुरा, अमलतास, गुलाबी सिरिस और कुछ अन्य पेड़ों से भरा तो हो सकता है. पर्यावरण अनुसंधान के क्षेत्र में होने के नाते मुझे सर्वेक्षणों के लिए जंगलों की यात्रा करने के लिए कई अवसर भी मिल जाते थे. कुल मिलाकर मैंने शहरवासी और प्रकृति प्रेमी के बीच का संतुलन पा लिया था. अपने आपको हलचल से भरे नए परिवेश में इस प्रकार समायोजित करने के एक साल के भीतर, विनाशकारी महामारी आई और इसके साथ तालाबंदी हुई जिससे किसी भी बाहरी गतिविधि पर रोक लग गई. घर पर सीमित रहने के शुरुआती दिन तो ठीक-ठाक बीत गए, किन्तु कुछ ही दिनों में मैं एक बंधक की तरह महसूस करने लगी और मुझे घबराहट तथा बेचैनी रहने लगी. साफ़ ज़ाहिर था कि प्रकृति के बीच समय न व्यतीत कर पाने की बेचैनी थी. मैं खुले आसमान, हरे-भरे बाग़ और घने पेड़ों के लिए तरस गई थी.

इस समय पर मैंने अपनी खिड़की के पाल पर रखे कुछ पौधों में अपना संतोष तलाश करना शुरू कर दिया. इस समय तक पौधों की बागबानी करना केवल एक शौक था और ये मेरी खिड़कियों के सौंदर्य में वृद्धि करते थे. कित्नु महामारी के समय घर पर रहते हुए मेरा नज़रिया हर हरे पत्ते की और बदला और महसूस हुआ कि घने जंगल सा पूर्ण अनुभव न सही, किन्तु ये सुक्ष्म पौधे भी हमें प्रकृति के नज़दीक होने का आभास दे सकते है. मैंने महसूस किया कि अपनी खिड़की पर समय बिताना और पौधों को ताकना समय के साथ उनकी पत्ती और तने के स्वरूप में वृद्धि और बदलाव को देखना, मुझे प्रकृति और जीवन में संतोष पाने की बहुत जरूरी समझ दे रहा था.

 महामारी के दौरान हममें से ज्यादातर लोगों ने पक्षियों के चहकने की आवाज बहुत सुनी, क्योंकि तालाबंदी की वजह से हमारे वातावरण में काफी शांति थी. चाहे वह केवल एक मुखर मैना थी, या विनम्र हाउस स्पैरो, या कभी-कभी बौराने वाला कबूतर का गुटर गूं या गर्मियों में गूंजती कोयल की कुहू थी, वे सभी हमारे चिंतित और उदास मन पर धुन का औषधीय लेप लगाते थे. 2020 में महामारी के दौरान और अब भी 2021 में इसकी दूसरी लहर के दौरान, मैं अपने पौधों के साथ अपने सुबह के शुरुआती कुछ मिनट बिता रही हूं.

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अपने अनुभव से मैं कह सकती हूं कि शहर के निवासी, अगर अपने उपलब्ध हरे स्थानों के साथ समय बिताते हैं तो कुछ पंख वाले आगंतुकों के साक्षी हो सकते हैं. स्वॉलोटेल बटरफ्लाई का थोड़ा सा स्पंदन, टेलर बर्ड का एक संक्षिप्त ठहराव, ओरिएंटल मैगपाई रॉबिन द्वारा एक जोर की सीटी, बैंगनी सनबर्ड द्वारा एक त्वरित मंडराना और कॉमन टाइगर बटरफ्लाई का फूलों में रस खोजना, ये सभी गतिविधियां अति मनमोहक हैं. चूंकि मैं एक व्यस्त शहर में रहती हूं, ये आगंतुक मेरी खिड़की पर बहुत कम हैं, किन्तु प्रत्येक यात्रा के साथ वे मेरे दिन को खुशी और उत्साह से भरते हैं, चाहे उनका ठहरना अत्यंत संक्षिप्त हो.

महामारी का यह दौर जब सामाजिक अलगाव आवश्यक है, प्रकृति के ये दूत मेरे उदास दिनों में आनंद के कुछ क्षणों का उपहार देते हैं, खासकर जब मैं चिंता और घबराहट से जूझती हूं. मेरा मानना है कि प्रकृति में पुनर्वृद्धि की शक्ति है, बशर्ते हम इसे अपने आंगन, बरामदे या खिड़की में आमंत्रित करना चाहते हों. जब प्रकृति हमारे समक्ष होती है, तो यह हमसे कुछ भी खर्च कराए बिना, हमारी व्यस्त, रोबोटिक शहरी ज़िन्दगी में आनंद, उत्सव, स्फूर्ति और जीवंतता लाती है.

लेखिका प्रियंवदा बगरिया भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून से वन्यजीव विज्ञान में डॉक्टरेट के साथ, भू-स्थानिक विश्लेषण में विशेषज्ञता प्राप्त शोधकर्ता हैं.

यह श्रृंखला 'नेचर कन्ज़र्वेशन फाउंडेशन' द्वारा चालित 'नेचर कम्युनिकेशन्स' कार्यक्रम की एक पहल है. इसका उद्देश्य भारतीय भाषाओं में प्रकृति से संबंधित लेखन को प्रोत्साहित करना है.

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