क्या वाकई रेमडिसिविर की कमी है या ऑक्सीजन सिलिंडरों की?

कोविड की दूसरी और ख़ौफ़नाक लहर झेल रहे देश में क्या वाकई ज़रूरी दवाओं, इंजेक्शनों या ऑक्सीजन सिलिंडरों की कमी है? क्या वाकई रेमडिसिविर के इंजेक्शन या फेबी फ्लू के टैबलेट कहीं नहीं मिल रहे? ये सब मिल रहे हैं. बस आपको क़ीमत चुकानी है.

क्या वाकई रेमडिसिविर की कमी है या ऑक्सीजन सिलिंडरों की?

कोविड की दूसरी और ख़ौफ़नाक लहर झेल रहे देश में क्या वाकई ज़रूरी दवाओं, इंजेक्शनों या ऑक्सीजन सिलिंडरों की कमी है? क्या वाकई रेमडिसिविर के इंजेक्शन या फेबी फ्लू के टैबलेट कहीं नहीं मिल रहे? ये सब मिल रहे हैं. बस आपको क़ीमत चुकानी है. रांची में मेरे एक परिचित का फोन आता है- उनको रेमडिसिविर इंजेक्शन चाहिए. मैं उन्हें जानकारी देता हूं कि नियमों के मुताबिक यह इंजेक्शन सिर्फ़ अस्पताल वाले दे सकते हैं. वे बताते हैं- अस्पताल वाले बोल रहे हैं, बाहर से जुगाड़ करो. कुछ घंटे बाद वे बाहर से जुगाड़ करने में कामयाब हो जाते हैं- बताते हैं कि ब्लैक में उन्हें इंजेक्शन मिल गया है.

यही हालत ऑक्सीजन सिलिंडर की है. दस-दस हज़ार रुपये में एक-एक सिलिंडर मिल रहा है. पैसे हैं तो ले जाइए और अपनों की जान बचा लीजिए. यानी सुलभ सबकुछ है- लेकिन कालाबाज़ारी और जमाखोरी करने वालों के घरों में है- संकट को अवसर में बदलने का खेल जानने वालों के गोदामों में है. आपके पास पैसे हैं तो ख़रीद लीजिए.

सामाजिक संकट को निजी मुनाफ़े के उद्मम में बदलना इस देश का खाता-पीता समुदाय हमेशा से जानता रहा है. उसे मालूम है जितनी प्राणांतक स्थितियां होंगी, उसके माल की क़ीमत उतनी ही बड़ी होगी. लेकिन इस जमाखोरी को परोपकार में बदलने का खेल नया है. दिल्ली से बीजेपी के सांसद गौतम गंभीर एक शाम फैबी फ्लू बांटते नज़र आए. लेकिन जब फैबी फ्लू देश की तमाम दवा दुकानों से ग़ायब हो चुका है तो उनको इतने सारे फैबी फ्लू बांटने को कहां से मिले? क्या उनकी वजह से कुछ वाकई गंभीर मरीज़ों की जान खतरे में नहीं पड़ गई होगी? और इस बात की क्या गारंटी है कि जिन लोगों को ये टैबलेट मिले, उन्होंने इन्हें ब्लैक नहीं किया होगा? इसी तरह सूरत में बीजेपी के नेता रेमडिसिविर जैसा ज़रूरी इंजेक्शन मुफ़्त में बांट रहे थे. उन्होंने 5000 इंजेक्शन बांटने की घोषणा की. किस नियम के तहत उन्हें ये इंजेक्शन सुलभ कराए गए? दिलचस्प ये है कि इस मामले में बीजेपी नेताओं से जब पूछा गया तो उन्होंने इसका बचाव किया. अब इस मामले में अदालत ने जवाब मांगा है.

ऐसा नहीं कि यह काम सिर्फ़ बीजेपी के नेता कर रहे हैं. राजनीति को दुकान में बदलने वाले नेता दूसरे दलों में भी हैं. बल्कि वे धीरे-धीरे दूसरी जगहों पर भी हावी हैं. दिल्ली के कई आरडब्ल्यूए- यानी रेज़िडेंट वेलफ़ेयर एसोसिएशन- अपनी सोसाइटी में ऑक्सीजन सिलिंडर इकट्ठा करके रख रहे हैं. उनकी मासूम दलील है कि यह उन्होंने अपनी सोसाइटी के लोगों के लिए बचा कर रखा है.

यानी एक तरफ़ लोगों की जान जा रही है और दूसरी तरफ़ कुछ लोग इसलिए दवाएं और सिलिंडर बचा कर रख रहे हैं कि अगर कभी उनके अपने बीमार पड़े तो यह उनके काम आएगा. या वे इसलिए उन्हें मुफ़्त में बांट रहे हैं कि इससे उनकी राजनीति की दुकान चमकेगी.

यह एक ख़तरनाक प्रवृत्ति है- जो इसलिए लगभग जानलेवा हो जाती है कि हमारे यहां वाकई संसाधन बहुत कम हैं. दो दिन पहले प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में यह सही बताया कि बीते एक साल में देश ने मास्क, पीपीई किट और वैक्सीन बनाने के मामले में बड़ी प्रगति की है और हमारा दवा उद्योग बहुत मज़बूत है. लेकिन यह उद्योग किसके काम आ रहा है? सरकारी अस्पतालों में दवाएं नहीं हैं, दवा दुकानों में भी नहीं है, तो फिर किनके पास है? जाहिर है, उन कालाबाजारियों और तथाकथित परोपकारियों के पास, जो प्रधानमंत्री की पार्टी की शोभा बढ़ा रहे हैं. दुर्भाग्य से अपने 18 मिनट के भाषण में प्रधानमंत्री को इस बार एक बार भी दवाओं-इंजेक्शनों और ऑक्सीजन सिलिंडरों की जमाखोरी और कालाबाजारी करने वालों का ख़याल नहीं आया. एक बार भी उन्होंने नहीं कहा कि ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई होगी.

कोविड की त्रासदी बहुत बड़ी है. उसने हमारे बहुत सारे आत्मीय जनों को छीन लिया है. लेकिन यह त्रासदी इसलिए कुछ और बड़ी हो गई है कि हमने इसे- या किसी भी बीमारी को- रोकने की पुख़्ता व्यवस्था नहीं की. सेहत का पूरा ज़िम्मा या कारोबार निजी क्षेत्र को सौंप दिया जिसकी वजह से कोविड के नाम पर किसी निजी अस्पताल में भर्ती होने वाले शख़्स को बिल्कुल पहले ही दिन कम से कम पचास हज़ार रुपये जमा कराने पड़ते हैं और अगर उसके तीन-चार दिन अस्पताल में कट गए तो तीन-चार लाख रुपये निकल जाते हैं. अब इसमें दवाओं और ऑक्सीजन सिलिंडरों की ब्लैक वाली क़ीमत जोड़ लीजिए- पता चलेगा कि सेहत के नाम पर हमसे कितनी बड़ी क़ीमत वसूली जा रही है.

इस एक साल में सरकार ने क्या किया? पीपीई किट कंपनियों ने बनाए जिसके लिए वे बड़ी क़ीमत वसूल रही हैं. मास्क बनाने का लघु उद्योग हिट हो गया. टीके भी निजी कंपनियों ने बनाए? सरकार का पैसा कहां गया? खास कर प्रधानमंत्री राहत कोष से अलग कोरोना के नाम पर प्रधानमंत्री केयर फंड जो बनाया गया था, उसकी रक़म का क्या हुआ? इस सवाल का जवाब आप पूछ नहीं सकते. क्योंकि इसे सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा गया है.

तो फिलहाल ज़रूरी और प्राणरक्षक दवाओं और उपकरणों की कालाबाज़ारी देखिए और अस्पतालों की लूट के बीच अपने बचे रहने की कामना कीजिए. और इसके बाद आपने प्रधानमंत्री या सरकार की आलोचना करने का दुस्साहस किया तो उनके भक्तों की गाली भी सुनिए.

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं...

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